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अकर्मकी चौपाई.
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तनकी संगति कष्ट अपार । सहे जीव संकट बहु वार ॥ करे । ताके दुख कहु को उच्चरै ॥ १८ ॥ कही । जगत मूल येही बनि रही ॥
जामन मरन अनंता प्रकृति त्राणचे ताकी जब ये प्रकृति सबहि खिरजाहिं । तवहि अरूपी हंस कहाहिं ॥ १९ ॥ सप्तम गोत करम जिय जान । ऊंचनीच जिय यही बखान ॥ गुण जु अगुरु लघु ढाँके रहें । तातें ऊंचनीच सब कहें ॥ २० ॥ जब ये दोड आवरन जांहिं । तव पहुंचे पंचभिगतिमाहिं ॥ अष्टम अन्तराय अरि नाम । वल अनंत ढाँके अभिराम ||२१|| शकति अनंती जीव सुभाय । जाके उदै न परगट थाय ॥ ज्यों ज्यों घटहि आवरण कही । त्यों त्यों प्रगट होय गुण सही २२ पांच जातिके विकट पहार । याकी ओट सबै सुख सार ॥ इन विन गये न पाव मूल । इन विन गये रह्यो जिय भूल २३ ये सही सुखके दरवान । येही सबके आगेवान ॥ जब ये अंतराय मिट जाहिं । तव चेतन सब सुखके माहि ||२४||
दोहा.
यही आठ कर्ममल, इनमें गर्भित हंस |
इनकी शकति विनाशक, प्रगट करहि निज वंस ॥ २५ ॥ इहिविधि जीव अनन्त सव, वसत यही जगमाहिं ॥ इनहि त्याग निर्मल भये, ते शिवरूप कहाहिं ॥ २६ ॥ 'भैया' महिमा ब्रह्मकी, ऐसे वनी अनाद ॥ यथा शक्ति कछु वरणयी, जिन आगम परसाद ॥ २७ ॥ इति अष्टकर्मकी चौपई.
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