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ब्रह्मविलासमें
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है आपमें आप लखै अपनो पद, पाप रु पुण्य दुई निरवार। सो जिनदेवको सेवक है जिय, जो इहिभांति क्रिया करतारै ॥१२॥
कवित्त. एक जीवद्रव्यमें अनंत गुण विद्यमान, एक एक गुणमें अनंत । शक्ति देखिये । ज्ञानको निहारिये तो पार याको कहूं नाहि,लोक ६
ओ अलोक सव याहीमें विशेखिये। दर्शनकी ओर जो विलोकिये है तो वहै जोर, छहों द्रव्य भिन्न भिन्न विद्यमान पेखिये। चारितसों थिरता अनंतकाल थिररूप, ऐसेही अनंत गुण भैया सव लेखिये१३१
छप्पय. राग दोष अरु मोहि, नाहिं निजमाहिं निरक्खत । दर्शन ज्ञान चरित्र, शुद्ध आतम रस चक्खत ॥ परद्रव्यनसों भिन्न, चिह्न चेतनपद मंडित ।
वेदत सिद्ध समान, शुद्ध निज रूप अखंडित ॥ सुख अनंत जिहि पदवसत, सो निहचै सम्यक महत । ह'भैया' सुविचक्षन भविक जन, श्रीजिनंद इहि विधि कहत १४ ह
. व्यवहार सम्यक लक्षण. छप्पय. छहों द्रव्य नव तत्त्व, भेद जाके सव जाने । दोष अठारह रहित, देव ताको परमानै । संयम सहित सुसाधु, होय निरग्रंथ निरागी।
मति अविरोधी ग्रन्थ, ताहि मान परत्यागी ॥ वरकेवल भाषित धर्मधर, गुण थानक बूझै मरम । 'भैया' निहार व्यवहार यह, सम्यक लक्षण जिन धरम ॥१५॥
____ व्यवहार निश्चयनय वर्णन-मात्रिक कवित्त. जाके निहचै प्रगट भये गुण, सम्यक दर्शन आदि अपार । home/es-PERPeppeowapepornwerPORDNews
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