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ब्रह्मविलास में
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अपने गुण परजायमें, वरतै सव. निरधार ॥
को काह भेटै नहीं, यह अनादि
गुण जाको
द्रव्य एक आकाश है, परणामी पूरन भरयो, अंत न वरण्यों जास ॥ ४ ॥ दूजो पुद्गल द्रव्य है, वर्ण गन्ध रस फांस ॥ छाया आकृति तेज द्युति, ये सब जास विलास ॥ ५ ॥ तीजो धर्म सुद्रव्य है, चलत सहायी होय || पुद्गल अरु पुन जीवको, शुद्ध स्वभावी जोय ॥ ६ ॥ चौथो द्रव्य अधर्म है, जब थिर तबहिं सहाय ॥ देय जीव पुद्गलनको, लोक हद्दलों भाय ॥ ७ ॥ पंचम काल प्रसिद्ध है, वर्त्तन जासु स्वभाय ॥ समय महूरत जाहि जो, सो कहिये परजाय ॥ ८ ॥ षष्ठम चेतन द्रव्य है, दर्शन ज्ञान स्वभाय ॥ परणामी परयोगसों, शुद्ध अशुद्ध कहाय ॥ ९ ॥ है अनादि ब्रह्मण्ड यह, छहाँ द्रव्यको वास ॥ लोकहद्द इनतें भई, आगें एक अकास ॥ १० ॥ सूर चंद निशदिन फिरें, तारागण बहु संग ॥
विस्तार ॥ ३ ॥ अवकास ॥
यही अनादि स्वभाव है, छिन्न इक होय नभंग ॥ ११ ॥ कहा ज्ञान है नाज पैं, ऋतुविन उपजै नाहिं ॥ सबहि अनादि स्वभाव है, समुझ देख मनमाहिं ॥ १२ ॥ बोवत है जिह बीजको, उपजत ताको वृक्ष ॥
ताहीको रस वढत है, यह बात को वोवत वन वृक्षको को सींचत फलफूलनिकर लहलहे, यह अनादि स्वभाय ॥ १४ ॥
नित जाय ॥
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परतक्ष ॥ १३ ॥
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