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absorb परमात्माछत्तीसी.
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भैयाकी यह वीनती, चेतन चितहि विचार || ज्ञानदर्श चारित्रमें, आपो लेहु निहार ॥ २४ ॥ एक सात पंचासके, संवत्सर सुखकार ॥ पक्ष शुक्ल तिथि धर्मकी, जै जै निशिपतिवार ॥ २५ ॥ इति वैराग्यपचीसी.
अथ परमात्माछत्तीसी लिख्यते । दोहा.
परम देव परमातमा, परम ज्योति जगदीश ॥
परम भाव उर आनके, प्रणमत हों नमि शीश ॥ १ ॥
तिनमें तीन प्रकार ॥
परमातम पदसार ॥ २ ॥
एक जु चेतन द्रव्य है, वहिरातम अन्तर तथा वहिरात ताको कहै, लखै न ब्रह्म स्वरूप ॥ मग्न रहै परद्रव्यमें, मिथ्यावंत अनूप ॥ ३ ॥ अंतर आतंम जीव सो, सम्यग्दृष्टी होय ॥ चौथै अरु पुनि बार, गुणथानक लों सोय ॥ ४ ॥ परमातम पद ब्रह्मको, प्रगव्यो शुद्ध स्वभाय ॥ लोकालोक प्रमान सब, झलकै जिनमें आय ॥ ५ ॥ बहिरातमास्वभाव तज, अंतरातमा होय ॥ परमातम पद भजत है, परमातम है सोय ॥ ६ ॥ परमातम सो आतमा, और न दूजो कोय ॥ परमातमको ध्यावते, यह परमातम होय ॥ ७ ॥ परमातम यह ब्रह्म है, परम ज्योति जगदीश ॥ परसों भिन्न निहारिये, जोइ अलख सोइ ईश ॥ ८ ॥ கைகைகைேவல்க்ளிக்ககைகளாள
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