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ब्रह्मविलास में
राग द्वेषके त्यागतैं, कर्म शक्ति जर जात ॥ ३२ ॥ परमातमके भेद द्वय, निकल सकल परमान ॥ सुख अनंतमें एकसे, कहिवेको द्वय थान ॥ ३३ ॥ भैया वह परमातमा, सो ही तुममें आहि ॥
अपनी शक्ति सम्हारिके, लखो वेग ही ताहि ॥ ३४ ॥ राग द्वेषको त्यागके, धर परमातम ध्यान ॥
ज्यों पावे सुख संपदा, भैया इम कल्यान ॥ ३५ ॥ संवत विक्रम भूपको, सत्रह से पंचास ॥ मार्गशीर्ष रचना करी, प्रथम पक्ष दुति जास ॥ ३६ ॥ इति परमात्माछत्तीसी ।
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अथ नाटकपचीसी लिख्यते ।
कर्म नाट नृत तोरके, भये जगत जिन देव ॥
नाम निरंजन पद लह्यो, करूं त्रिविधि तिहिं सेव ॥ १ ॥ कर्मनके नाटक नटत, जीव जगतके माहिं ॥ तिनके कछु लच्छन कहूं, जिन आगमकी छाहिं ॥ २ ॥ तीन लोक नाटक भवन, मोह नचावनहार ॥ नाचत है जिय स्वांगधर, करकर नृत्य अपार ॥ ३ ॥ नाचत हैं जिय जगतमें, नाना स्वांग वनाय ॥
देव नर्क तिरजंचमें, अरु मनुष्य गति आय ॥ ४ ॥ स्वांग धरै जब देवको, मानत है निज देव ॥ वहीं स्वांग नाचत रहै, ये अज्ञानकी देव ॥ ५ ॥ औरनसों औरहि कहै, आप कहै हम देव ॥ गहिके स्वांग शरीरको, नाचत है स्वयमेव ॥ ६ ॥
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