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PROPOWROOPROPOROADSRORONGmWOPARDS १२२८
ब्रह्मविलासमें जो परमातम सिद्धमें, सो ही या तन माहिं ॥ मोह मैल. हग लंगि रह्यो, तातें सूझै नाहिं ॥९॥ मोह मैल रागादिको, जा छिन कीजे नाश ॥ ता छिन यह परमातमा, आपहि लहै प्रकाश ॥ १०॥ आतम सो परमातमा, परमातम सो सिद्ध ।। बीचकी दुविधा मिटगई, प्रगट भई निज रिद्ध ॥ ११ ॥ मैंहि सिद्ध परमातमा, मैं ही आतमराम ॥ मैं ही ज्ञाता ज्ञेयको, चेतन मेरो नाम ॥ १२॥ मै अनंत सुखको धनी, सुखमय मोर स्वभाय ॥ अविनाशी आनंदमय, सो हो त्रिभुवन राय ॥ १३ ॥ शुद्ध हमारो रूप है, शोभित सिद्ध समान ।। गुण अनंतकर संजुगत चिदानंद भगवान ॥ १४॥ जैसो शिव खेतहि बसै, तैसो या तनमाहिं । निश्चय दृष्टि निहारतें, फेर रंच कहुँ नाहि ॥ १५ ॥ कर्मनके संयोगते, भये तीन परकार ॥ एक आतमा द्रव्यको, कर्म नचावन हार ॥ १६ ॥ कर्म संघाती आदिके, जोर न कछू वसाय ॥ पाई कला विवेककी, राग द्वेष विन जाय ॥ १७ ॥ कर्मनकी जर राग है, राग जरें जर जाय ॥ प्रगट होत परमातमा, भैया सुगम उपाय ॥ १८॥ काहे को भटकत फिर, सिद्ध होनके काज । "राग द्वेष को त्यागदे, 'भैया' सुगम इलाज ॥ १९॥ परमातम पदको धनी, रंक भयो विललाय ॥
राग द्वेषकी प्रीतिसों, जनम अकारथं जाय ॥२०॥ opanbappamPalenPOORProPROD
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