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ब्रह्माविलासमें चेतन अरु पुद्गल मिले, उपजे कई विकार ॥ तासों विन समुझे कहैं, रच्यो किनहिं संसार ॥ २७ ॥ यह संसार अनादिको, यही भांत चल आय ॥ उपजै विनशै थिर रहै, सो सव वस्तु स्वभाय ॥ २८ ॥ को काहू को नहीं, करता भुगता आप ॥ यह जीव अज्ञानमें, करै पुण्य अरु पाप ॥ २९॥ पुण्य पाप जग वीज है, याहीतें विस्तार ॥ जन्म मरन सुखदुख सहै, 'भैया' सब संसार ॥ ३० ॥ पुण्यपापको त्याग जे, भये शुद्ध भगवान ॥ अजरामर पदवी लई, सुख अनंत जिहँ थान ॥ ३१॥ इहि अनादि वत्तीसिमें, वरनी वात अनादि ॥ 'भैया' आप निहारिये, और वात सब वादि ॥ ३२॥ सत्रहरी पंचासके, आश्विन पहिला पक्ष ।। तिथि तेरस रविवारको, कही अनादि प्रत्यक्ष ॥ ३३ ॥
इति अनादिवत्तीसी.
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अथ समुद्धातस्वरूप लिख्यते।
दोहा. चरन जुगल जिनदेवके, वंदत हो कर जोर ॥ जिहँ प्रसाद निजसंपदा, लहै कर्म दल मोर ॥१॥ समुद्घात जे सात हैं, तिनको कछु विस्तार ॥ कहूं जिनागम शाखतें, जिय परदेश विचार ॥२॥ उदयकषाय प्रचंड है, निकसत जियपरदेश ॥
दमि दुर्जनकी देहको, बहुरि न करत प्रवेश ॥३॥ PRODOGDPPRPREPARANG-RAPSORRORSPARE