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SRIJANWA R REnemyamarapawanGOATOPANOROR अएकमकीचीपई,
१७७ ए अरे भव्य प्रानी जो तें जाति निज जानी तो तू, लखि जिनयानी जामें मोक्षकी निसानी है । काहुले कुबुद्धि सानी यामें है, र विपरीत आनी, ताहि जो पिछानी तो तू भयो ब्रह्म ज्ञानी है।
जाके नांव और ठानी द्वादशांगकै वखानी, वपुरे अज्ञानी ताकी बुद्धि भरमानी है । ठौर ठोर कानी जामै रहै नाहिं सत्य पानी, एकरनके मनमानी कलिकी कहानी है ॥२५॥
___ दोहा. यह अनित्यपच्चीसिके, दोहा कवित निहार ॥ - भैया चेतह आपको, जिनवानी उर धार ॥ २६ ॥ .
इति अनित्यपचीसिका.
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अथ अष्टकमकीचौपई लिख्यते। ..
दोहा. नमो देव सर्वज्ञको, वीतराग जस नाम | मन बच शीस नवाइके, करों त्रिविधिपरणाम ॥१॥
चौपाई. एक जीव गुण धेरै अनंत । ताको कछु कहिये विरतंत ॥
सब गुण कर्म अछादित रहे । कैसे भिन्न भिन्न तिहँ कहैं ॥२॥ से तामें आठ मुख्य गुन कहे । ताप आठ कर्म लगि रहे ॥
तिन कर्मनकी अकय कहान । निह. तो जाने भगवान ॥३॥ है कछु व्यवहार जिनागम साख । वर्णन करों यथारथ भाख ॥ ज्ञानावरन कर्म जव जाय । तव निज ज्ञान प्रगट सवथाय४ ताके. पंच भेद विस्तार । तथा अनंतानंत अपार ॥ जैसे कर्म घटहि जिह थान । तेसो तहाँ प्रगट है ज्ञान ॥५॥ avanewanapanpanpeparponomopanseenpanwaroo
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