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ब्रह्मविलास में
काहे तू डरत है। छहों खंडकी विभूति छाडत न बेर कीन्ही, चमू चतुरंगनों नेह न धरत है ॥ नौ निधान आदि जे चउदह रतन त्याग, देह सेती नेह तोर वन विचरत है । ऐसी विभो त्यागत विलंब जिन कीन्हों नाहिं, तेरे कहो केती निधि सोच क्यों करत है ॥ २६ ॥
दोहा.
यह सुपंथ कुपथके, कवित पचीस प्रसिद्ध ॥ 'भैया' पढत विवेकसों, लहिये आतमरिद्ध ॥ २७ ॥ इति सुपंथकुपथपची सिका
अथ मोहभ्रमाष्टक लिख्यते । दोहा. परम पूज्य सर्वज्ञ है, तारन तरन त्रिकाल |
तासु चरन वंदन करों, छांडि सु आल जंजाल ॥ १ ॥ एक मोहकी मगनसों, भ्रमत सवहि संसार ॥
देखे अरु समझे नहीं, ऐसो गहल गँवार ॥ २ ॥
कवित्त.
मोहके भरमसों करम सब करै जीव, मोहकी गहलमें जगत सब गाइये | मोह धरै देह परनेह परसों जु करै, भरमकी भूलमें धरम कहाँ पाइये ॥ चरमकी दृष्टिसों परम कहूं पेखियत, मोहहीकी भूल यह भरम माइये । चेतन अचेतनकी जाति दोऊ भिन्न भिन्न, मोह एकमेक लखै "भैया' यों बताइये ॥ ३ ॥
ब्रह्मा अरु विष्णु महादेव तीनों एक रूप, कहै परमेश्वरके अंबनाये हैं । विरंचि औ शंकरने आपुसमें युद्ध कीनो, खरशी
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