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ॐ
ब्रह्मविलास में
अथ सुपंथकुपंथपचीसिका लिख्यते । • दोहा. केवल ज्ञान स्वरूपमें, राजत श्री जिनराय ॥ तास चरन वंदन करहूं, मन वच शीस नवाय ॥ १ ॥ कहूं सुपंथ कुपंथ के, कवित पचीस वखान ॥ जाके समुझत समझिये, पंथ कुपंथ निदान ॥ २ ॥ कवित्त.
तेरो नाम कल्पवृच्छ इच्छाको न राखै उर, तेरो नाम कामधे कामना हरत है | तेरो नाम चिन्तामन चिन्ताको न राखै पास, तेरो नाम पारस - सो दारिद डरत है || तेरो नाम अम्रत पियेतें जरा रोग जाय, तेरो नाम सुखमूल दुःखको दरत है। तेरो नाम वीतराग धेरै उर वीतरागा, भव्य तोहि पाय भवसागर तरत है ॥ ३ ॥
सुन जिनवानी जिहँ प्रानी तज्यो राग द्वेप, तेई धन्य धन्य जिन आगममें गाये हैं | अमृतसमानी यह जिहँ नाहिं उर आ नी, तेई मूढ प्रानी भवभावरि भ्रमाये हैं | याही जिनवानीको सवाद सुख चाखो जिन, तेही महाराज भये करम नसाये हैं । तातें हग खोल 'भैया' लेहु जिनवानी लखि, सुखके समूह सव याहीमें बताये हैं ॥ ४ ॥
अपने स्वरूपको न जाने आप चिदानंद, वह भ्रम भूलि वहै मिथ्या नाम पावै है । देव गुरु ग्रन्थ पंथ सांचको न जाने भेद, जहाँ तहाँ झूठे देख मान शीस नावै है | चेतन अचेतन है हिंसा करे ठौर ठौर, बापुरे विचारे जीव नाहक सतावै है । जलके न थलके
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