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ब्रह्मविलास में
गहहिं महाव्रत भार, लहहिं निज सार शुद्ध रस ॥ धरहिं सुध्यान प्रधान, ज्ञान अम्रत रस चक्खहिं | सहहिं परीपह जोर, व्रत निज नीके रक्खहिं ॥ पुनि चढहिं श्रेणि गुण थान पथ, केवल पद प्रापति करहिं । .तस चरण कमल वंदन करत, पाप पुंज पंकति हरहिं ॥ १.१ ॥ कवित्त. ( मनहरण )
भरमकी रीति भानी परमसों प्रीति ठानी, धरमकी बात जानी ध्यावत घरी घरी । जिनकी बखानी वानी सोई उर नीके आनी, निचै ठहरानी दृढ हैके खरी खरी || निज निधि पहिचानी तव भयौ ब्रह्म ज्ञानी, शिव लोककी निशानी आपमें धरी धरी । भौ थिति विलानी अरि सत्ता जु हठानी, तब भयो शुद्ध प्रानी जिन वैसी जे करी करी ॥ १२ ॥
तीनसै वेताल राजु लोकको प्रमान कह्यो, घनाकार गनतीको ऐसो उर आनिये। ऊंचो राजू चवदह देख्यो जिन राज जूने, तामे राजू एक पोलो पवन प्रवानिये ॥ तामें है निगोद राशि भरी घृतघट जैसें, उभे भेद ताके नित इतर सु जानिये । तामै सों निकसि व्यवहार राशि चढै जीव, केई होहिं सिद्ध केई जगमें बखानिये ॥ १३ ॥
छप्पय..
जो जानहिं सो जीव, जीव विन और न जाने । जो मानहिं सो जीव, जीव विन और न मानें ॥ जो देखहि सो जीव, जीव विन और न देखे । जो जीवहि सो जीव, जीव गुण यहै विसेखै ॥
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