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सुबुद्धिचौवीसी.
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महिमा निधान अनुभूत युत, गुण अनंत निर्मल लसै । सो जीव द्रव्य खत भवि, सिद्धं खेत सहजहिं वसै ॥ १४॥ कवित्त,
अचेतनकी देहरी न कीजे तासों नेहरी, ओगुनकी गेहरी परम दुख भरी है । याही के सनेहरी न आवें कर्म छेहरी सु, पार्वे दुख तेहरी जे याकी प्रीति करी है | अनादि लगी जेहरी जु देखतही खेहरी तू, यामें कहा लेहरी कुरोगनकी दरी है । काम गजकेहरी सुराग द्वेपके हरी तू, तामें हग़ देहरी जो मिथ्यामति हरी है ॥ १५ ॥
सवैया.
ज्ञान प्रकाश भयो जिनदेवको, इंद्रसु आय मिले जु तहांई । रूपसुवर्ण महाद्युति रत्नके, कोट रचे त्रै अनादिकी नाई ॥ वीस हजार जु पैड़ी विराजत, ताप चढ्यो तिरलोक गुसांई । देखके लोक कहै अवनीपर, सिंधु चढ्यो असमानके तांई ॥ १६ ॥ नीव धेरै शिवमंदिरकी, उरमें कितनी उकतै उपजावै । ज्ञानप्रकाश करै अति निर्मल, ऊरधकी मति यों चित लावै ॥ इन्द्रिन जीतकें प्रीति करै, परमेश्वरसों मन चाह लगावे । देखें निहार विचार यहै, करमें करनी महाराज कहावै ॥ १७ ॥ तोहि इहां रहिबो कहु केतक, पंथमे प्रीति किये सुख स्वै है पोपत जाहिं पियारीसु जानकें, सो तौ नियारीये होतन छै है | तू इम जानत है तनही मम, सो भ्रम दूर करो दुख है । देह सनेह करै मत हंस, गई कर जाहिं निवाहन है है ॥ १८ ॥ कवित्त..
मृग मीन सुजनसों अकारन वैर करे, ऐसे जगमाहिं जीव
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