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ब्रह्मविलास में
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घातिया कर्म दारि, लोकालोकको निहारि भयो सुखरासी हैं । सर्वही विनाश कर्म, भयो महादेव धर्म, वैदै भव्य ताहि नित लोक अग्रवासी है ॥ २ ॥
नेकु राग द्वेष जीत भये वीतराग तुम, तीनलोक पूज्यपद येहि त्याग पायो है । यह तो अनूठी बात तुम ही बताय देहु, जानी हम अबहीं सुचित्त ललचायो है ॥ तनिक कष्ट नाहिं पाइये अनन्त सुख, अपने सहजमाहिँ आप ठहरायो है। यामें कहा लागत है, परसंग त्यागतही, जारि दीजे भ्रम शुद्ध आपुही कहायो हैं ॥ ३ ॥
वीतराग देव सो तो बसत विदेहक्षेत्र, सिद्ध जो कहावै शिवलोकमध्य लहिये । आचारज उवझाय दुहीमें न कोऊ यहां, साधु जो बताये सो तो दक्षिण में कहिये ॥ श्रावक पुनीत सोऊ विद्यमान यहां नाहिं, सम्यकके संत कोऊ जीव सरदहिये | शास्त्रकी शरधा तामें बुद्धि अति तुच्छ रही, पंचम समैमें कहो कैसे पंथ गहिये ॥ ३ ॥
तूही वीतराग देव राग द्वेष टारि देख, तूही तो कहावै सिद्ध अष्ट कर्म नासतें । तूही तो आचारज है आचरैजु पंचाचार, तूही उवझाय जिनवाणीके प्रकाशतें ॥ परको महत्त्व त्याग तूही है सो ऋषि राय, श्रावक पुनीत व्रत एकादश भासते । सम्यक स्वभाव तेरो शा'स्त्र पुनि तेरी वाणी, तूही भैया ज्ञानी निज रूपके निवासतें ४ ॥ मात्रिक सवैया.
आलस कहै उद्यम जिन ठानों, सोवहु सदन पिछोरी तान । काहे रैन दिना शठ धावत, लिख्यो ललाट मिलै सोइ आन ॥ आवत जात मरे जिय केतक, एसेही भेद हिये पहिचान । तातें इकंन्तगहो उरअन्तर, सीख यहै धरिये सुख मान ॥ ५ ॥
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