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ब्रह्मविलास में
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साधु तणा गुण मन आणीजै । पटद्रव्य भेद भला जानीजें ॥ श्रीजिनवचन अमृतरस पीजै । सब जीवनकी रक्षा कीजै ॥ ३ ॥ लग्यो अनादि मिथ्यात्व वमीजे । त्रिभुवन माही जिम न पसीजें ॥ पाचौं इन्द्री प्रवल दमीजै । निज आतम रस माहि रमीजै॥४॥ परगुण त्याग दान नित कीजै । शुद्ध स्वभाव शील पालीजें ॥ अष्ट करम तज तप यह कीजै । शुद्धस्वभाव मोक्ष पामीजें ॥५॥
दोहा.
इहविधि श्रीजिन चरण नित, जो बंदत धर भाव ॥ ते पावहिं सुख शास्वते, 'भैया' सुगम उपाव ॥ ६ ॥ इति पंचपरमेष्ठि नमस्कार.
अथ गुणमंजरी लिख्यते. दोहा.
परम पंच परमेष्ठिको, बंदों सीस नवाय ॥
जस प्रसाद गुण मंजरी, कहूं कथन गुणगाय ॥ १ ॥ ज्ञान रूप तरु ऊगियो, सम्यकधरतीमाहिं ॥ दर्शन दृढ शाखासहित, चारित दल लहकाहिं ॥ २ ॥ लगी ताहि गुण मंजरी, जस स्वभाव चहुं ओर ॥ प्रगटी महिमा ज्ञानमें, फल है अनुक्रम जोर ॥ ३ ॥ जैसे वृक्ष रसालके, पहिले मंजरी होय ॥ तैसें ज्ञान तमालके, गुणमंजरिका जोय ॥ ४ ॥
दया सुवत्सल सुजनता, आतम निंदा रीति ॥ .. समता भक्ति विरागविधि, धर्म रागसों प्रीति ॥ ५ ॥ मनप्रभावना भाव अति, त्याग न ग्रहन विवेक ॥ धीरज हर्ष प्रवीनता, इम मंजरी अनेक ॥ ६ ॥
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