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सत्य
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. सिद्धचतुर्दशी. mammmmmmmmmmm..... SH
१४३ करो, प्रगट गुण गेह करो मोहदल मोरकैं। अष्टा दशदोपहरो,अष्ट ।
कर्म नाश करो, अष्ट गुण भास करो, कहूं कर जोरकै ॥९॥ है वर्णम न ज्ञान नहि ज्ञान रस पंचनमें, फर्समें न ज्ञान नहीं ज्ञान ,
कई गंधर्म। रूपमे न ज्ञान नहीं ज्ञान कई ग्रथनमें, शब्दमें न ज्ञा न नहीं ज्ञान कर्म बंधनें । इनतें अतीत कोऊ आतम स्वभाव |
लसै, तहाँ वसे ज्ञान शुद्ध चेतनाके खंधर्मे ॥ ऐसो वीतरागदेव है कयो हैप्रकाशभेव, ज्ञानवंत पाचै ताहि मूढ़ धावै ध्वधर्म ॥१०॥ ___ वीतराग वैन सो तो ऐनसे विराजत है, जाके परकाश निजभास पर लहिये। सूझै पट दर्व सर्व गुण परजाय भेद, देवगुरु ग्रंथ पंथ ।
एर गहिये । करमको नाश जामें आतम अभ्यास करो, है ध्यानकी हुतास अरिपंकतिको दहिये । खोल हग देखि रूप अ-है
हो अविनाशी भूप, सिद्धकी समान सवतोपें रिद्ध कहिये ॥११॥ र रागकी जु रीतसु तो बडी विपरीत कही, दोपकीजुवात सु तो है
महादुख दात है । इनहीकी संगतिसों कर्मवन्ध करै जीव, इनही संगतिसो नरक निपात है। इनहीकी संगतिसों वसिये निगोद ई बीच, जाके दुखदाहको न थाह कयो जात है। येही जगजाल के फिरावनको बडे भूप, इनहीके त्यागे भव भ्रम न विलात है ॥१२॥
मात्रिक कवित्त. असी चार आसन मुनिवरके, तामें मुक्ति होनके दोय। से पद्मासन खड्गासन कहिये, इनविन मुक्ति होय नहिं कोय ॥ परम दिगम्बर निजरस लीनो, ज्ञान दरश थिरतामय होय।। है
अष्ट कर्मको थान भ्रष्टकर, शिवसंपति विलसत है.सोय ॥१३॥ WORWARUPanerapannpepanpanwarweppropos
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