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ब्रह्मविलास में
जिन आगम जो कह्यो सिधंत । तिनपै राग धरत है संत ॥ ज्यों देखहि जिनधर्म उद्योत । त्यों तिहिं राग महा उर होत ४० जहां सुनै जिनधर्मी कोय । तिहिं मिलिवेकी इच्छा होय ॥ धर्म राग धर्मीपै जोय । सम्यक लच्छन कहिये सोय ४१
दोहा.
कही आठ गुणमंजरी, सम्यक लक्षण जान ॥ पंच भेद पुनि और है, तेहू कहूं बखान ॥ ४२ ॥ मन प्रभावना भाव धर, हेय उपादेय वंत ॥ धीरज हर्ष प्रवीनता, इम मंजरी वृतंत ॥ ४३ ॥ चौपाई.
प्रज
धरै । किहि विधि जैनधर्म विस्तरे ॥ दाम । प्रगट करे जिन शासननाम ४४ करै । तामें विंव अनोपम धेरै ॥
चित प्रभावना भावहिं संघ चलावहि खरचै जिनमंदिरकी रचना करै प्रतिष्ठा विविध प्रकार । सो जिनधर्मी चित्त उदार ॥४५॥ साधू साध्वी श्रावक वर्ग । इनके दूर करहिं उपसर्ग ॥ पोषै संघ चतुर्विधि जान । सो जिनधर्मी कहे बखान ॥४६॥ इह विधि करे उद्योत अनेक । जाके हिरदै परम विवेक ॥ जिनशासनकी महिमा होय । नितप्रति काज करत है सोय ४७ जब कोउ जीव महाव्रत धरै । ताके तहां महोत्सव करै ॥ खरचहि द्रव्य देय बहु दान । सो प्रभावना अंग बखान ॥४८॥ अब कहुं हेय उपादेय भेद । जाके लखे मिटै सब खेद ॥ प्रथमहिं हेय कहतहूँ सोय । जामे त्याग कर्मको होय ॥ ४९ ॥ पुद्गल त्याग योग्य सब तोहि । इनकी संगति मगन न होहि ॥ ऐसें जो वरतै परिणाम । हेय कहत है ताको नाम ॥ ५० ॥
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