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ब्रह्मविलास में
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१३ | राग सोरठ.
अरे सुन जिनशासनकी बतियाँ, जातें होय परमं सुखि छतियां, अरे०टेक । निजपर भेद करहु दिन रतियां, ज्यों प्रगटहिं शिवशकतिअनँतियां, अरे० ॥ १ ॥ सुख अनंत सव होय निकतियां, मिटहि सकल भव भ्रमकी घतियां, अरे० ॥ २ ॥ परम ज्योति प्रगटै परभतियां, 'भैया' निजपद गहु निज मतियां, अरे० ॥ ३ ॥
१४ । राग कान्हरो.
देखो मेरी सखीये आज चेतन घर आवै ॥
काल अनादि फिर चो परवशही, अब निज सुधहिं चितावै, दे० ॥१॥ जनमजनमके पाप किये जे, ते छिन माहि बहावै ॥ श्रीजिनआज्ञा शिरपर धरतो, परमानंद गुण गावै, देखो० ॥२॥ देत जलांजुलि जगत फिरनको, ऐसी जुगति बनावै ॥ विलसै सुख निज परम अखंडित, भैया सब मनभावै, देखो ॥ ३ ॥
१५ । राग केदारो.
कैसे देऊं करमन दोष कैसें० ॥ टेक ॥
मगन है है आप कीने, गहे रागरु दोष ॥ विषयोंके रस आप भूल्यो, पापसों तन पोस, कैसे ० ॥ १ ॥ देवधर्म गुरु करी निंदा, मिथ्या मदके जोस ॥ फल उदै भई नरकपदवी, भजोगे कै कोस, कैसें० ॥ २॥ : किये आपसु बनै, भुगते, अब कहा अफसोस । दुखित तो बहु काल बीते, लही न सुख जल ओस, कैसें० ॥ ३ ॥
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