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ब्रह्मविलास में
बहु
पकरि भगावै करि बहु मान । तबै हंस चिंतें निज ज्ञान ॥ २०६ ॥ यह तो मोह कर वह जोर । मोको रहन न दे उहि ओर ॥ अब याको मैं भिष्टित करों । अप्रमत्तमें तब पग धरों ॥ २०७ ॥ तब हंसे थिरता अभ्यास । कीन्हीं ध्यान अगनिपरकाश ॥ जारीं शक्ति मोह की कई । महा जोरतें निर्बल भई ॥ २०८ ॥
हंस लयो निज बल परकास । कीन्हों अप्रमत्त पुर वास ॥
सुभट तीनं मोहके देरे । अरु परमाद सबै अप हरे ॥ २०९ ॥ तज्यो अहार विहार विलास । प्रथम करण कीनो अभ्यास ॥ सप्तम पुरके अंत अनूप । करै कर्ण चारित्र स्वरूप ॥ २१० ॥ आवै संग मोह दल लेय। पैं कछु जोर चलें नहिं जेय ॥
अब जिय अष्टम पुर पग धेरै मोह जुसंग गुप्त अनुसरे ॥ २११ ॥ करहि करण चेतन इह ठांव । दूजो कह्यो अपूरव नाव ॥ जेकबहूँ न भये परिणाम । ते इहि प्रगटे अष्टम ठाम || २१२ || अब चेतन नवमे पुर आय। जामें थिरता बहुत कहाय ॥ पूरव भाव चलहि जे कहीं । ते इह थानक हालै नहीं ॥ २१३ ॥ विधि करण तीसरो करै । तबै मोह मन चिंता धेरै ॥ यह तो जीते सव पुर जाय । मेरो जोर कडून बसाय ॥ २१४॥ दोहा.
मोह सेन सब जोरिक, कीन्हों एक विचार ॥
परगट भये बनै नहीं, यह मारै निरधार || २१५ ||
ता
'सुभट लुकाय तुम, रहो पुरनके मांहि ॥
जो कहूँ आवै दावमें, तो तुम तजियो नाहिं ॥ २१६ ॥
( १ ) नरक तिर्यंच और देव आयुको । (२) उपसमित किये । ( ३ ) अनिवृत्त करन नामके नवमें गुण स्थानमें ।
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