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ब्रह्मविलासमें सो अरिष्ट सब जीत राखे, ऐसी बात करें ऐसे महा मुनिराजे
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है श्रीवीर जिनस्वामीको केवल प्रकाश भयो, इंद्र सब आय तहां क्रिया निज कीनी है। सोचत सो इन्द्र तव वानी क्यों न खिर । आज यह तो अनादि थिति भई क्यों नवीनी है ।। पूछत सीम- धर जायके विदेहक्षेत्र, इन्द्रभूति योग छिनमें बताय दीनी है। आय एक काव्य पढी जाय इंद्रभूति पास, सुनत ही चौंक चल्यो आय दीक्षा लीनी है ॥ ९७ ॥
छंद प्लवङ्गम. . राग द्वेष अरु मोह, मिथ्यात्व निवारिये। पर संगति सब त्याग, सत्य उर धारिये ।। केवल रूप अनूप, हंस निज मानिये । ताके अनुभव शुद्ध सदा उर आनिये ॥ ९८॥
सवैया. है जो षट स्वाद विवेकी विचारत, रागनके रस भेदनपो है। है पंच सुवर्णके लच्छन वेदत, वूझै सुवास कुवासहिं जो है ॥
आठ सपर्श लखै निज देहसों, ज्ञान अनंत कहेंगे कितो है। है ताहि विलोकि विचक्षन रेमन, द्वैपल देखतो देखत को है।।९९॥
कवित्त. है बुद्धि भये कहा भयो जो शुद्ध चीन्हीं नाहि,बुद्धिको तो फल, है यह तत्त्वको विचारिये । देह पाये कौन काज पूजे जो न जिन
राज, देहकी बडाई ये जप तप चितारिये ॥ लच्छि आये कौन सिद्धि रहि है न थिर रिद्धि, लच्छिको तो लाहु जो सुपात्र मुख SwoopnappeopPORORSCOPompoupoROWROOOD
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