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HOM/GANGANWeepans weADEnadARDANCE १२८
ब्रह्मविलासम.
सवैया.
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काहेको शोच करै चित चेतन, तेरी जु वात सु आगे बनी है। है देखी है ज्ञानीते ज्ञान अनंतमें,हानि ओवृद्धिकी रीति घनी है ।। है ताहि उलंघि सकै कहि कोउजु, नाहक भ्रामिक वुद्धि ठनी है।
याहि निवारिके आपु निहारिकें, होहु सुखी जिम सिद्ध धनी है ८८ है कोउजु शोच करो जिन रचक, देह धरी तिहु काल हरेंगी। है जो उपज्यो जगमें दिन चारके, देखत ही पुनि सोई मरेगो॥ मोह भुलावत मानत सांच सो, जानत याहीसों काज सरंगो। पंडित सोई विचारत अंतर, ज्ञान सँभारिक आपु तरंगो। ८९॥ काहेको देहसों नेह करे तुव, अंतको राखी रहेगी न तेरी। है मेरी है मेरी कहा करै लच्छिसों, काहुकी हैके कहूं रही नेरी ?
मान कहा रह्यो मोह कुटुंबसों, स्वारथके रस लागे सगेरी। ई तातें तू चेति विचक्षन चेतन, झूटी है रीति सबै जगकेरी ॥९०॥ है।
कवित्त. है केवल प्रकाश होय अंधकार नाश होय, ज्ञानको विलास होय
ओरलों निवाहवी। सिद्धमें सुवास होय, लोकालोक भास होय, आपुरिद्ध पास होय औरकी न चाहवी ॥ इन्द्र आय दास होय
अरिनको त्रास होय,दवको उजास होय इष्टनिधि गाहिवी। सत्वहै सुखराश होय सत्यको निवास होय, सम्यक भयेतें होय ऐसी सत्य साहिवी ॥ ९१ ॥
मात्रिक कवित्त. जाके घट समकित उपजत है, सो तो करत हंसकी रीत । क्षीर गहत छांडत जलको सँग, वाके कुलकी यह प्रतीत ॥
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