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ब्रह्मविलास में.
गुण अनंत जामे प्रगट, कबहू होहिं न और रुख । तिहिं पद परसे विनु रहै, मूढ मगन संसार सुख ॥ १०४ ॥ कवित्त.
जीव जे अभव्य राशि कहे हैं अनंत तेल, ताहू तैं अनंत गुणे सिद्धके विशेखिये । ताहूतैं अनंत जीव जगमें जिनेश कहे, तिनहू कर्म ये अनंत गुणे लेखियेः ॥ तिनहूर्तें पुद्गल प्रमाणु हैं अनंत गुणे, ताद्वतैं अनंत यों अकाशको जु पेखिये । ताहूतैं अनन्त ज्ञान जामें सब विद्यमान, तिहूं काल परमाण एकसमै देखिये ॥ १०५ ॥ कवित्त,
जे तो जल लोकमध्य सागर असंख्य कोटि, ते तौ जल पीयो पै न प्यास याकी गयी है । जे ते नाज दीपमध्य भरे हैं अवार ढेर, तेतौ नाज खायो तोऊ भूख याकी नयी है ।। तातें ध्यान ताको कर जातें यह जाँय हर, अष्टादश दोष आदि येही जीत लयी है । वहै पंथ तूहीं साजि अष्टादशजाहिं भाजि होय बैठि महाराज तोहि सीख दयी है ॥ १०६ ॥
कविकी लघुता, छंद कवित्त,
हो बुद्धिवंत नर हँसो जिन मोह कोऊ, बाल ख्याल कीनो तुम लीजियो सुधारिके । मैं न पढ्यो पिंगल न देख्यो छंद कोश कोऊ, नाममाला नावको पढ़ी नहीं विचारिके ॥ संस्कृत प्राकृत व्याकरणहू न पढ्यो कहूं, तातें मोको दोष नाहि शोधियो निहा रिके । कहत भगोतीदास ब्रह्मको लह्यो विलास, तातैं ब्रह्म रचना करी है विसतारिके ॥ १०७ ॥
दोहा.
इति श्री शत अष्टोत्तरी, कीन्हीं निजहित काज ।
जे नर पढहिं विवेकसों, ते पावहिं शिवराज ॥ १०८ ॥
इति शतअष्टोत्तरी कवित्तबंध समाप्ताः ।
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