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भिपकर्म-सिद्धि कुपितानां हि दोपाणां शरीरे परिधावताम् ।
यत्र संगः खवैगुण्याद् व्याधिस्तत्रोपजायते ।। अव यहाँ पूर्वरूप का प्रादुर्भाव होता है, जो रोगभेद से प्रत्येक रोग में भिन्न-भिन्न हो सकता है। अब इस पूर्वरूपावस्था में व्याधि का ज्ञान हो जाने पर चतुर्थ क्रियाकाल का समय रहता है और उपचार या प्रतीकार प्रारम्भ किया जा सकता है । एतदर्थ ही सुश्रुत ने लिखा है-'तत्र पूर्वत्पगतेपु चतुर्थ. क्रियाकाल ।'
TOTTESTT ( V Stage of Disease or Treatment ) व्याधि का स्पष्ट रूप से व्यक्त हो जाना रोग की अभिव्यक्ति है। इस अवस्था मे रोग के सभी लक्षण पूर्णतया व्यक्त हो जाते हैं । इसी को व्याधिदर्शन या स्प भी कहते है। जैसे-गोफ, अर्बुद, यि, विसर्प, ज्वर, अतीसार प्रभृति रोगो के लक्षण पूर्णतया प्रकट हो जाते है । ( Stage of manifestation or Fully developed disease ) अब यहाँ पर व्याविप्रत्यनीक चिकित्सा करने की आवश्यकता होती है। इस प्रकार यह उपचार का पचम क्रियाकाल है। 'तत्र पचम क्रिया काल ।'
भेदावस्था ( VI Stage of Disease or Treatment or stage of Variation )-दोप दूष्यो की सम्मुर्छनावस्थाजन्य ही व्याधियाँ होती है। अब इस अवस्था मे सम्प्राप्ति के भेदो के अनुसार-- 'संख्याविकल्पप्राधान्यवलकालविभेदत' रोग का विभेद किया जा सकता है। इसके अलावे रोग की साध्यता याप्यता या, असाध्यता का ज्ञान करना भी संभव रहता है। ( The disease either may subside wholly or may take shape of chronic, sub-acute or acute or it may produce other disease or may become complicated or may result in to death of the patient ) इस प्रकार का ज्ञान भेदावस्था मे होता है। इसको Stage of variation कहते है । ( Introduction to 'Kayachikitsa' by C Dwarkanath) यह उपचार का अन्तिम या छठवा काल है। 'तत्र पष्ठ क्रियाकाल.।'
कई ग्रन्यो के माधार पर क्रियाकाल तथा रोगभेदो का दो स्वतन्त्र कोएको मे नीचे वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है।