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द्वितीय अध्याय यदि प्रसर की अवस्था मे ही रोग का ज्ञान सम्भव हो सके तो प्रतिकार प्रारम्भ करना चाहिये । यह तृतीय क्रिया काल है । 'तत्र तृतीयः क्रियाकाल ।'
FATTEETPITTEETT (IV Stage of Disease or Treatment )- यदि विकार का प्रशम नही हो सका तो अब चतुर्थावस्था रोग की प्राप्त हो जाती है । प्रसृत हुए दोप फैलते हुए स्रोतो की विगुणता पैदा करके जिस स्थान पर रुक जाते है वहाँ पर स्थानसश्रय होता है। अब विकार एक स्थान पर सीमित हो जाता है- ( Stage of .limitation )। इसी को स्थानसश्रय कहते है । चक्रपाणि ने लिखा है-'पूर्वरूपमेव स्थानसश्रयम्' अर्थात् स्थानसश्रय की अवस्था ही पूर्वरूप कहलाती है। अग्रेजी मे इसे Prodromal Phase of the Disease कहते है। दोप प्रसरित होकर जिन-जिन स्थानो मे सश्रय करता है उन उन स्थानो पर निम्नलिखित रोगो को पैदा करता है। १ उदर मे मन्निवेश होने पर --गुल्म-विद्रधि-उदर-अग्निमाद्य-आनाह,
विपूचिकातिसार प्रभृति रोग । २ वृपण
,
वृद्धि प्रभृति रोग। ३ मेढ़
निरुद्धप्रकश, उपदश, शूकदोप आदि
रोग। ४. वस्ति
प्रमेह, मूत्राघात, अश्मरी, मूत्रदोष
__ आदि रोग। ५ गुदा
भगदरार्श प्रभृति रोग। ६ ऊर्ध्वजत्रु ,
ऊर्ध्वजत्रुगत रोग। ७ त्वक्-मास ,
क्षुद्ररोग, कुष्ठ, विसर्प प्रभृति व्याधियां । ८. मेद
, ग्रन्थि, अपची, गलगण्ड, गण्डमाला
आदि रोग। ९ अस्थि
विद्रधि, उपशयी प्रभृति रोग। । १० पाद ,
श्लीपद, वातशोणित, पादकटक ११. सर्वाङ्ग
ज्वर, सर्वाङ्गरोग।