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भिपकर्म-सिद्धि, TEATTEETT (III stage of the Discase or Trcatment) यदि कुपित दोपो का गमन नहीं हुआ तो गेग अग्रसर होता है। दोपो का विमार्ग-गमन होना प्रारंभ हो जाता है ( Overflowing or Spread of the Doshas )। इसी को ( stage of Extension ) पहा जा सपना है । दोपो के प्रसार मे रजोभूयिष्ठ वायु ही प्रवर्तक होता है उनी गी सहायता से प्रकुपित दोप शरीर के विभिन्न अवयवों में जाते हैं। उनकी उपमा महान् उदक सचय से दी गई है। जैसे कि जल का मचय बट पर बांध को तोडकर बाहर निकलकर दूसरे वाहरी जल ने मिलकर चारो ओर दीरता है उसी प्रकार दोपो का प्रसार भी सम्पूर्ण शरीर मे होता है। दोप एकाग , दोदो, तीन-तीन या रक्त के साथ मिलकर बहुत प्रकार ने फैलने है जिनमे निम्निलिखित पद्रह प्रकार महत्त्व के होते हैं
वात, पित्त, कफ, रक्त, वातपित्त, वातन्लेप्म, वात रक्त, पित्त रक्त, श्लेष्मरक्त, वातपित्त रक्त, वातश्लेष्म रक्त, पित्तश्लेष्म रक्त, वातपित्तपफ तथा वात पित्त कफ शोणित से उत्पन्न व्याधियां पाई जाती है । दोपो के प्रसर की उपमा मेघ एव तज्जन्य वर्षा से दी गई है -
कृत्स्नेऽवयवे वापि यत्राओं कुपितो भृशम् ।
दोपो विकार नभसि मेघवत्तत्र वर्पति ।। प्रकोप एवं प्रसर मे भेद-भेद बतलाते हुए डल्हण ने लिखा है। जमे घृत को अग्नि पर चढावे, उसके पिघलने की अवस्था प्रकोप की होगी। फिर आंच लगते रहने पर खोलेगा और खीलकर वर्तन से वाहर निकलने लगेगा, यह प्रसर कहलायेगा । इसी प्रकार की अवस्था दोपो के सम्बन्ध मे भी समझनी चाहिये। प्रसर की अवस्था मे लक्षणपित्त मे-ओप ( एकदैशिक दाह ), चोप ( सर्वाङ्ग में चूपण के समान
दाह ) तथा धूमायन । बात मे-आटोप ( रुजापूर्वक उदर का क्षोभ )। श्लेष्मा मे-अरोचक, अविपाक, अग्निमाद्य, वमन ।