Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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प्रस्तावना
है कि प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु भी ज्योतिर्ज्ञानी रहे होंगे। कहा जाता है कि वराहमिहिर के पिता भी अच्छे ज्योतिषी थे। बृहज्जातक में स्वयं वराहमिहिर ने बताया है कि कालपी नगर में सूर्य से वर प्राप्त कर अपने पिता आदित्यदास से ज्योतिष शास्त्र की शिक्षा प्राप्त की। इससे सिद्ध है कि इनके वंश में ज्योतिष शास्त्र के पठन-पाठन का प्रचार था और यह विद्या इनके बंशगत थी। अतः इनके भाई भद्रबाहु द्वारा रचित कोई ज्योतिष ग्रन्थ हो सकता है। पर यह सत्य है कि यह भद्रबाहु श्रुतकेवली भद्रबाहु से भिन्न हैं। इनका समय भी श्रुतकेवली भद्रबाहु से सैकड़ों वर्ष बाद है।
श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने ग्रन्ध परीक्षा द्वितीय भाग में इस ग्रन्थ के अनेक उद्धहरण उद्धृत कर तथा उन उद्धरणों की पारस्परिक असम्बद्धता दिखलाकर यह सिद्ध किया है कि यह ग्रन्थ भद्रबाहु श्रुतकेवली का बनाया हुआ न होकर इधर-उधर के प्रकरणों का बेदंगा संग्रह है। उन्होंने अपने वक्तव्य का निष्कर्ष निकालते हुए लिखा--"यह खण्डत्रयात्मक ग्रन्थ (भद्रबाहुसंहिता) भद्रबाहु श्रुतकेवली का बनाया हुआ नहीं है, न उनके किसी शिष्य प्रशिष्य का बनाया हुआ है और न विक्रम सं० १६५७ के पहले का बनाया हुआ है, बल्कि उक्त संवत् के पीछे का बनाया हुआ है।" मुख्तार साहब का अनुमान है कि ग्वालियर के भट्टारक धर्मभूषणजी की कृपा का यह एकमात्र फल है। उनका अभिमत है-"वही उस समय इस ग्रन्थ के सर्व सत्त्वाधिकारी थे। उन्होंने वामदेव सरीखे अपने किसी कृपापात्र या आत्मीयजन के द्वारा इसे तैयार कराया है अथवा उसकी सहायता से स्वयं तैयार किया है। तैयार हो जाने पर जब इसके दो-चार अध्याय किसी को पढ़ने के लिए दिये गये और वे किसी कारण वापिस न मिल सके तब वामदेवजी को फिर से दुबारा उनके लिए परिश्रम करना पड़ा। जिसके लिए प्रशस्तिका यह वाक्य 'यदि वामदेवजी फेर शुद्ध करि लिखी तय्यार करी' खासतौर से ध्यान देने योग्य है और इस बात को सूचित करता है कि उक्त अध्यायों को पहले भी वामदेवजी ने ही तैयार किया था। मालूम होता है कि लेखक ज्ञानभूषणजी धर्मभूषण भट्टारक के परिचित व्यक्तियों में से थे और आर्थय नहीं कि वे उनके शिष्यों में भी थे। उनके द्वारा खास तौर से यह प्रति लिखवाई गई है।"
श्रद्धेय मुख्तार साहब के उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि में यह ग्रन्ध १७वीं शताब्दी का है तथा इसके लेखक म्वालियर के भट्ठारक धर्मभूषण या उनके कोई शिष्य हैं। मुख्तार साहब अपने कथन की पुष्टि के लिए इस ग्रन्थ के जितने भी उद्धरण लिये हैं, वे सभी उद्धरण इस ग्रन्थ के प्रस्तुत २७ अध्यायों के बाहर के हैं। ३०वा अध्याय जो परिशिष्ट में दिया गया है, इससे उस अध्याय की रचना तिथि पर प्रकाश पड़ता है। इस अध्याय के आरम्भ में १०वें श्लोक में बताया गया है।