Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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मुनियों की चर्या की भर्त्सना की तथा उन लोगों ने अपने आचरण के अनुकूल जिन ग्रन्थों की रचना की थी, उन्हें अमान्य घोषित किया। इसी समय से श्वेताम्बर सम्प्रदाय का विकास हुआ। वे शिथिलाचारी मुनि ही वस्त्र धारण करने के कारण श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रवर्तक हुए। भगवान महावीर के समय में जैन सम्प्रदाय एक था; किन्तु भद्रबाहु के अनन्तर यह सम्प्रदाय दो टुकड़ों में विभक्त हो गया । उक्त भद्रबाहु श्रुतकेवली को ही निमित्त शास्त्रका ज्ञाता माना जाता है, क्या यही श्रुतकेवली इस ग्रन्थ के रचयिता हैं ? इस ग्रन्थ को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि भद्रबाहु स्वामी इसके रचयिता नहीं हैं।
यद्यपि इस ग्रन्थ के आरम्भ में कहा गया है कि पाण्डुगिरि पर स्थित महात्मा, ज्ञान-विज्ञान के समुद्र, तपस्वी, कल्याणमूर्ति, रोग रहित, द्वादशान श्रुत के वेत्ता, निर्ग्रन्थ, महाकान्ति से विभूषित, शिष्य प्रशिष्यों से युक्त और तत्त्ववेदियों में निपुण आचार्य भद्रबाहु को सिर से नमस्कार कर निमित्त शास्त्र के उपदेश देने की प्रार्थना की।
द्वादशाङ्ग
तत्रासीन महात्मार्न तपोयुक्तं च श्रेयांसं भद्रबाहु बेसार नैर्मन्थे च वृतं शिष्यैः प्रशिष्यैश्च निपुणं शिरसाऽऽचार्यमूचुः शिष्यास्तदा प्रीतमनसो दिव्यज्ञानं
प्रणम्य
सर्वेषु
तत: प्रोवाच
यथावस्थासु
भवद्भिर्यद्यहं
समासव्यासत:
प्रस्तावना
भगवान्
द्वितीय अध्याय के आरम्भ में बताया गया है कि शिष्यों के प्रश्न के पश्चात् भगवान भद्रबाहु कहने लगे
विन्यासं
पृष्टो
सर्व
दिग्वासाः
निमित्तं
ज्ञानविज्ञानसागरम् । निराश्रयम् ॥
तत्रिबोध
महाद्युतिम् ।
तत्त्ववेदिनाम् ॥
गिरम् ।
बुभुत्सवः ॥
भ० सं० अ० १ श्लो० ५-७
श्रमणशोशत्तमः ।
द्वादशाङ्गविशारदः ।
जिनभाषितम् । यथाविधि ॥
इस कथन से यह अनुमान लगाया जा सकता है, कि इसकी रचना श्रुतकेवली भद्रबाहु की होगी। परन्तु ग्रन्थ के आगे के हिस्से को देखने से निराशा होती है। इस ग्रन्थ के अनेक स्थानों पर 'भद्रबाहु - वचो यथा' (अ० ३ श्लो० ६४; अ० ६ श्लो० १७ अ० ७ श्लो० १९० अ० ९ श्लो०