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श्रीदेवकुमारजी की दक्षिण-यात्रा - [ले-श्रीयुत् पं० के० भुजबली शास्त्री, विद्याभूषण, मूडबिद्री ]
तिथि-संवत् स्मरण नहीं है। आप मितपरिवार के साथ पारा से चलकर इलाहाबाद-प्रागरा-जयपुर होते हुए गिरनार पहुँचे। वहाँ पर कुछ दिन ठहरकर दर्शनपूजन आदि अभीष्ट पुण्य कार्यों को सानंद संपन्न कर वहाँ से शत्रुञ्जय गये ।
आप शत्रुञ्जय की यात्रा निरंतराय समाप्त करके बम्बई आये। बम्बई में आप स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्द्रजी के सम्मान्य अतिथि रहे। उस जमाने में माणिकचन्द्रजी दिगम्बर जैन समाज के एक उज्ज्वल रत्न समझे जाते थे। दिगम्बर जैन समाज जबतक जीवित रहेगा, तबतक उपयुक्त दानवीर के महान उपकार को भूल नहीं सकता। आपने दिगम्बर जैन समाज के उत्कर्ष के लिये बहुत कुछ किया है। बल्कि यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वर्तमान युग में माणिकचन्द्रजी ने दिगम्बर जैन समाज को ऊपर उठाने के लिये जितना प्रयत्न किया था, उतना प्रयत्न
आजतक किसीने नहीं किया है। उस जमाने में सेठ साहब से सारा दिगम्बर जैन समाज भले प्रकार परिचित था। आपके स्नेहपूर्ण विशाल हृदय में अपने कुटुम्ब की चिन्ता से भी अधिक चिन्ता समाज की रही। आप समाज के अभ्युदय के लिये रात दिन सोचा करते थे। दानवीरजी के जमाने में जैन समाज का कोई भी हितेच्छु अगर बम्बई आ जाय तो उसे अपने यहाँ आमंत्रित कर योग्य सत्कार बिना किये नहीं जाने देते थे। ऐसी परिस्थिति में देवकुमारजी का सेठ साहब के यहाँ ठहर जाना सर्वथा स्वाभाविक ही रहा। क्योंकि उस जमाने में माणिकचन्द्रजी के बाद समाज में भाप ही का नाम लिया जाता था।
हाँ, यहाँ पर एक आवश्यक बात का उल्लेख करना मैं भूल गया था। वह यह है कि देवकुमारजी की इस पुण्य यात्रा के प्रेरक एवं मार्गदर्शक श्रद्धेय नेमिसागरजी वर्णी थे। वर्णीजी पर देवकुमारजी की असीम श्रद्धा और भक्ति थी। कुमारजी वर्णीजी को अपने एक अनन्य हितेच्छु ही मानते थे। प्रत्येक धार्मिक कार्य में आप वर्णीजी से राय लेते थे। आपको वर्णीजी की बातों पर बड़ी श्रद्धा थी। अतएव देवकुमारजी कौटुम्धिक उलझनों में भी कभी-कभी वर्णीजी से सलाह भी लेते थे। देवकुमारजी ने अपने मरणकाल में भी वर्णीजी को यहाँ से कलकत्ता बुलवाकर बाप ही के हाथ से समाधिमरण का व्रत लिया था। हाँ, इस प्रसंग पर यह उल्लेख कर देना भी आवश्यक है कि वर्णीजी को अपने यहाँ पाश्रय देकर भापके अध्ययन की ठीक ठीक व्यवस्था करने का पूर्ण श्रेय भी देवकुमारजी को प्राप्त था। वर्णीजी