Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 11
________________ आत्मशिक्षाभावना घड़पण धर्म थाये नही, जोबन एहले जाय । तरुण पणे धसमस करी, पछे फरी पछताय ॥ २६ ॥ जरा आवी जोबन गयं, शिर पलिया ते केश । ललता तो छोडी नहीं, न कस्यो धर्म लवलेश ।। ३० ।। पंचेंद्रिये जिहां परवड़ा, रोग जरा नावंत । जोबन चंचल आवे सदा, कर तु धर्म महंत ॥ ३१ ॥ छते हाथ न वावस्यो, संबल न कियो साथ । आय गइ मन चेतियो, पछे घसे निज हाथ ॥ ३२ ॥ धन जोबन नर रूपनो, गर्व करे तुगमार। कृष्ण बलभद्र द्वारिका, जातां न लागी वार ॥३३॥ आठ पहोर तु धसमसी, धनार्थ देशांतर जाय । सो धन मेल्युं ताहरू, औरज कोइ खाय ॥ ३४ ॥ आंख तणे फरूकड़े, उथल पाथल थाय । इस्यूं जाणी जीव बापड़ा, म करिश ममता माय ॥ ३५ ॥ माया सुख संसार मां, ते सुख सहिय असार । धर्म पसायें सुख मिले, ते सुख नावे पार ॥ ३६॥ नयन फरूके जिहां लगे, तिहां ताहरू सहु कोय । नयन फरुकत जब रही, तब ताहारु नहिं होय ॥ ३७॥ पाप कियां जीव तें बहू, धर्म न कियो लगार । नरक पड्यो यमकर चढ्यो, तिहां करे पोकार ॥ ३८ ॥ कोई दिन राणो राजियो, कोई दिन भयो त देव । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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