Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha Author(s): Kavindrasagar Publisher: Kavindrasagar View full book textPage 9
________________ आत्मशिक्षा भावना निगोद सूक्षम बादरे, पुद्गल अनंत अपार | एतो काल तुं तिहां रह्यो, हिवे कर हिये विचार ॥ ८ ॥ श्वासो उच्छ्वासा एकमां, मरण सतर अध कीध । सूक्ष्म निगोदमांहे वली, ए जिन वचन प्रसिद्ध ॥ ६ ॥ नरय विगलेंद्री तिर्यच गति, भव कीया बहु हेव । भवनपति व्यंतर ज्योतिषी, और विमानिकदेव ॥ १० ॥ इम भमतां भमतां लियो, मनुज जनम अवतार | मिथ्यात्वपणे भव निर्गम्या, काज न सीध लगार ॥ ११ ॥ जगमां जीव अछे बहु, एक शुं अनंती वार । विविध प्रकार सगपण किया, हैया साथ विचार ||१२|| तो कुण आपण पारकं, कुण वैरी कुण मित्त । राग द्वेष टाली करी, कर समता इक चित्त ॥ १३ ॥ पूर्व कोडिने आउखे, ज्ञानी गुरुह अपार । उत्पत्ति कहि जीव ताहरी कहतां नावे पार ॥ १४ ॥ पुत्र पित्तापणे अवतरे, पिता पुत्रपण जोय । माता सगपण नारि मली, नारी माता होय ॥ १५ ॥ सूतो सुपन जंजालमा, पाम्यो जाणे राज । जब जाग्यो तब एकलो, राज न सीझे काज ॥ १६ ॥ तिम ए कुटुंब सहु मल्युं, खोटी माया जाल । आयु पहोंचे आपणे, खिण थाये विसराल ॥ १७ ॥ सोदो लेयण जण मिले, जिहां जोड़ी सहि हाट । २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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