Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 85
________________ ७८ समाधि विचार दुष्ट मोह चंडाल की, परिणत विषम विरूप। संजमधर मुनि श्रेणीगत, पटके भवजल कूप ।। १८६ ।। मोह करम महादुष्ट कु, प्रथम थकी पहिचांण । जिन वाणी महामोगरे, अतिशय कोध हेरान ॥ १८७ ॥ जरजरीभूत हुई गया, नाठा मुजसु दूर । अब नजीक आवे नहीं, दुरपे मुजसु भूर ॥ १८८ ॥ तेणे करी मैं नचिंत हुं, अब मुज भय नहीं कोय।। त्रणलोक प्राणी विषे, मित्र भाव मुज होय ।। १८६ ।। सुणो सज्जन परिवार तुम, सभालोक सुणो बात । मरणे का भय नहीं मुज, एह निश्चे अवदात ॥ १६० ॥ अवसर लही अब मैं भया, निर्भय सर्व प्रकार । आत्म साधन अब करु, निसंदेह निरधार ।। १६१ ॥ शुद्ध उपयोगी पुरुष कु, भासे मरण नजीक । तब जंजाल सब परिहरी, आप होवे निरभीक ।। १६२ ॥ एणी विध भाव विचार के, आणंद मय रहे सोय । - आकुलता किणविव नहीं, निराकुल थिर होय ॥ १६३ ॥ आकुलता भव बीज है, इणथी वधे संसार । _जाणी आकुलता तजे, ए उत्तम आचार ।। १९४ ।। संजम धर्म अंगोकरे, किरिया कष्ट अपार । तप जप बहु वरसां लगे, करी फल संच असार ॥ १६५ ॥ आकुलता परिणाम थी, खीण में होय सहु नाश । समकितवंत एम जाणीने, आकुलता तजे खास ॥ १६६ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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