Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 99
________________ समाधि विचार एणी विध तुमकुहितभणी, वचन कह्यां सुरसाल । जो तुमकुं सच्चा लगे, तो कीजो चित्त विशाल ॥३४०॥ दया भाव चित्त आणके, मैं कह्या धर्म विचार । ... जो तुम हृदय मां धारशो, तो लेशो सुख अपार ॥ ३४१ ।। एम सबकुँ समजाय के, सब से अलगा होय । अवसर देखी आपणां, चित्त में चिंते सोय ॥ ३४२ ॥ आयु अल्प निज जाण के, समकित दृष्टिवंत । दान पुन्य करणा जिके, निज हाथे करे संत ॥ ३४३ ॥ महाब्रत धारी मुनिवरा, सम्यग ज्ञान संयुक्त । धारक दशविव धर्मना, पंच समिति त्रण गुप्त ॥ ३४४ ॥ बाह्य अभ्यंतर ग्रंथि जे, तेहथी न्यारा जेह । बहुश्रुत आगम अर्थना, मर्म लहे सहु तेह ॥ ३४५ ॥ एहवा उत्तम गुरु तणो, पुन्य थी जोग जो होय ।। .. अन्तर खुली एकान्त में, निशल्य भाव होय सोय ॥३४६॥ एहवा उत्तम पुरुषनो, जोग कदी नवी होय । तो समकित दृष्टि पुरुष, महा गंभीर ते जोय ॥ ३४७ ।। एहवा उत्तम पुरुष के, आगे अपनी बात । हृदय खोल कर कीजिये, मरम सकल अवदात ॥ ३४८ ।। जोग जीव उत्तम जिके, भव भीरु महाभाग्य । एहवो जोग न होय कदा, कहेणे को नही लाग ॥३४॥ अपना मन में चिंतवे, दुष्ट करम वश जेह । पाप करम जे होय ग, बहु विध निदे तेह ॥ ३५० ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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