Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 105
________________ ( ६८ ) श्वासोश्वास में अपने अनादि काल के कर्मों के बंध को शिथिल करके तोड़ता हुआ अपने चरमलक्ष केवलज्ञान की ओर अग्रसर होता है तथा बंधन रहित अवस्था मोक्ष के नजदीक पहुँचता है, इच्छा कामना रहित ऐसी सहज चित्तवृत्ति की अवस्था को ज्ञानियों ने भाव से तप कहा है जिसमें सब कर्मों का नाश कर देने की अनुपम शक्ति रही हुई है । उपरोक्त आत्म विज्ञान-निश्चय से सम्यक्त्व सहित अपने सहज शुद्धात्मा का ज्ञान भगवान महावीर को गत् तीसरे भव में ही हो गया था। और निश्चय से सम्यग्-दृष्टि मनुष्य को होता है, तथा जिसने दर्शन-मोहनीय की सातों प्रकृतियों की जड़ से क्षय कर दिया हो, उसे सर्वदा कायम रहता हैं। भगवान महावीर का समताभाव-शुद्धात्म साधन स्वरूप । 'करेमि सामाइयं' पाठ पूर्वक दीक्षा ग्रहण करने के बाद उन्हें चौथा मनःपर्यवज्ञान प्रगट हुआ। __ वे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति रूप उत्कृष्ट साधना कायोत्सर्गध्यान में छ द्रव्य, नौ तत्व आदि वस्तु स्वरूप एवं उसके स्वभाव का अर्थात पृथक-पृथक द्रव्यों के पृथक गुण एवं पर्याय का चिन्तन, मनन ध्यान के द्वारा वस्तु स्थिति का समाधान होने पर अपने विशुद्ध अन्तरात्मा की अनुभूति में समाधिस्थ होकर परम शान्ति एवं परमानन्द का अनुभव करते थे। ऐसे परम उत्कृष्ट समता भाव को शास्त्रों में अभेद रत्नत्रय-सम्यग्-दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः ( तत्वार्थसुत्र । ) कहा है । उनके उपदेशानुसार जीवादि तत्वों की दृढ़ श्रद्धा हो तथा उस श्रद्धाबल से मनुष्य को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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