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( ६६ ) यथाप्रवृति आदि त्रिकरण के द्वारा निश्चय से सम्यग् दर्शन-शरीरादि सभी पौद्गलिक वस्तु से पृथक अपने सहज शुद्धात्म स्वरूप एवं स्वभाव का बोध-अनुभूति हो जाय तो उपर्युक्त भाव सामायक इस काल में भी सम्भव है। लेकिन भरतक्षेत्र के आजकल के वातावरण में उस भाव में अधिक समय स्थिर रहना कठिन हैं, तो भी साधन रूप अभ्यास मुमुक्षु को करते रहना चाहिये, यह उनका कर्तव्य है। साधना काल में जब भगवान को आहार एवं विहार का प्रयोजन होता, तब वे ईर्यादि पांच समिति पूर्वक अर्थात जीवों की यत्नाजयणा पूर्वक चलना, बोलना, आहारादि करते थे, जिससे किसी भी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट दुःख न पहुंच जाय। क्योंकि वे महसूस करते थे कि चींटी से हाथी पर्यन्त ही नहीं बल्कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पतिकाय भी मेरी आत्मा के समान अन्य जीवों का निवास स्थान है, और चेतन शक्ति की अपेक्षा सभी जीव समान है, तथा शरीर वा विचार का भेद जो दीखता है वह तो अपने अपने विभिन्न कर्मों के उदयानुसार है। ___ अपने विनाशी शरीर की सुख सुविधा के लिये उनके प्राणों को ठेस पहुंचाना हिंसा हैं , पाप है जो अपनी आत्मा के लिये भी इस भव में, परभव में दुःख का कारण है। अस्तु वे उपयोग पूर्वक सावधानी से विहारादि करते थे। उनका अन्य किसी प्राणी को कष्ट नहीं देने का कितना उत्कृष्ट भाव था-वह अपने निम्न उदाहरण से अनुभव कर सकते हैं । जैसे वे किसी के द्वार पर आहार लेने को गये, उस द्वार पर पहले से कोई भीखमंगा अथवा
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