Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 110
________________ शुद्धात्मा के ध्यान में अपनी चित्तवृति को योग कर-लगाकर स्थिर रहने रूप समाने रूप पुरूषार्थ का अभ्यास करते रहना उसका कर्तव्य है। सर्वजीव छे सिद्ध सम, जैसमझे ते थाय, सद्गुरू आज्ञा, जिन दशा, निमित कारण माय । उपादान नु नाम लेई एजे तजे निमित्त पावे नहीं सिद्धत्व ने, रहे भ्रान्ति मां स्थित । आत्म-सिद्वि ऐसे उत्कृष्ट आत्म साधन रूप समता भाव से ही अहिंसा परमोधर्म का सिद्धान्त प्ररूपित हुआ उसको सर्वाङ्ग पालने के लिए सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, विनय, सरलता, संतोष तपादि व्रत प्रचलित हुए हैं। अनादिकाल से प्रत्येक संसारी जीव को अष्ट कर्म रूपी भयानक रोग लगा हुआ हैं। किन्तु अज्ञानतावश वह रोग को रोग नहीं मानने की भूल करता आया हैं तथा कर्म रोग उत्पन्न होने के असली कारण शुभाशुभ भाव एवं कार्य को करता हुआ वह रोग को मिटाना चाहता है, किन्तु उससे रोग मिटते नहीं, उपशम-दब जाते हैं, फिर मौका पाकर अपना प्रभाव जीव पर जमाते हैं अपनी भूलके फलस्वरूप जीव को अनादि काल से चार गतियों में जन्म मरणरूप से भटकना पड़ रहा है जिससे अशान्ति एवं दुःख अनुभव करना पड़ रहा है, अपनी इस अनादि भूल को सुधारने का स्वर्ण सुयोग उसे मनुष्य योनि, आर्य क्षेत्र में ही मिलता है । अतः अपने मूल्यवान बिवेक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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