Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003812/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cooooooooooooo0000000008 * ॐ अहं नमः न आत्म-बोध सार संग्रह संग्राहक :मुनि श्री कवीन्द्रसागरजी महाराज 90000000000000000000000000000000000 सम्पादन मुमुक्षु केशरी Bawasaccvapo00000000000 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीँ अहं नमः आत्म-बोध सार संग्रह संग्राहक - " जं० यु० प्र० भ० खरतरगच्छाधिराज श्री श्री १००८ श्री मज्जिनहरिसागरसूरीश्वरान्तेवासी मुनि श्री कवीन्द्रसागरजी महाराज. ह पुस्तक स्व० श्री रायकुमारसिंह पारख की पुण्य स्मृति में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती स्नेहलता पारख द्वारा अपने श्री ज्ञानपंचमी तप उद्यापन के उपलक्ष में धर्मप्रेमी बन्धुओं के स्वाध्याय के लिये सादर भेंट की जाती है । सदुपयोग प्रार्थित प्रथमावृत्ति १००० र सम्वत् २५०० भादो शुक्ल ५ सम्वत् २०३१ पुस्तक मिलने का पता : - श्री प्रवीरकुमार पारख ४ अभय सरकार लेन कलकत्ता- ७०००२० फोन नं० : ४७-२००६ Jain Educationa International निवेदक :प्रवीरकुमार पारख आमुख एवं भगवान महावीर का आत्म-विज्ञान लेखक - मुमुक्षु केशरी संशोधक श्री भवरलालजी नाहटा For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74865 आमुख भगवान महावीर के आत्म-विज्ञान से आत्म-जागृति एवं क्रान्ति भगवान ने उद्घोष किया था कि प्रत्येक आत्मा सत्ता की अपेक्षा चेतना शक्ति की अपेक्षा परमात्मा तुल्य है। अतः जो आत्मा अपनी सत्ता एवं शक्ति को पहचान कर श्रद्धा पूर्वक तदनुकूल अपने विचार एवं आचार को मोड़ ले तथा अपनी चित्तवृति को आत्मसम्मुख कर ले, वह परमात्मा बन सकता है। भगवान ने यह भी बतलाया कि जैसे तुम्हारी आत्मा मनुष्य शरीर में वास करती है, वैसे ही पशु, पक्षी, मछली रूप शरीर में अन्य आत्माएं वास करती हैं, तथा पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय भी वैसे सत्ताधारी, अनंत-अनंत जीवों का वास स्थान है। . अपने नश्वर देह की सुख सुविधा के लिये भी अन्य प्राणियों की अनर्थक हिंसा न करो, ऐसा कार्य काया से वचन से न करो जिससे उन्हें संताप कष्ट पहुँचे और मन से भी किसी की बुराई मत सोचो, क्योंकि मन के अशुभ विचार से पाप बंधता है, शुभ विचार से पुण्य और शुद्ध परिणाम से कर्मों की निर्जरा होती है, इसलिये शास्त्रों में कहा है कि मनुष्य का मन ही शुभाशुभ भाव से कर्म बंध कर लेता है, और असार संसार में भटकता है, तथा शुद्ध भाव से कर्मों को क्षय कर मुक्त होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन निर्वाह के लिये जल और वनस्पति-अन्नादि के जीवों की हिंसा होती हैं, किन्तु वह भी आवश्यकता से अधिक नहीं होनी चाहिये एवं जयणा-दयाभाव पूर्वक जीवन बिताना कर्तव्य हैं। शरीर प्रयोजन के लिये जिन प्राणियों की हिंसा होती है उसके लिये सुबह शाम और सोते समय हार्दिक पश्चाताप पूर्वक उनसे माफी मांगनी चाहिये। सच्चे हृदय से पश्चाताप पूर्वक क्षमत-क्षामणा करने से सब पाप धुल जाते हैं, और जीवों के साथ का अनादि काल का वैर-विरोध मिट जाता है, जिससे वर्तमान जीवन में शान्ति एवं आनन्द उपलब्ध होता है, ओर भविष्य जीवन भी सुघरता है। __ पाप से हल्का होने से आत्मा अभिमान को छोड़ कर विनयी बनता है और मार्ग-दर्शक शुद्ध देव, गुरु, धर्म के प्रति श्रद्धालु बनता है, और माया शल्य-दम्भ का त्याग कर सरल हृदय से, नियाणाशल्य-इस जीवन व अगले भव की कामना-वासना से रहित निष्काम चित्त से, मिथ्या-दर्शन शल्य आत्म समझ पूर्वक आत्म शुद्धि के लिये मार्ग-दर्शक सद्गुरु की आज्ञा रूप धर्म की आराधना करता है। वह व्यवहार से सम्यग् दी है। ऐसी मनो विकार रहित शुभ आराधना से उसमें पात्रता आती है, तब उसे असारसंसार से ज्ञान गर्भित वैराग्य होने लगता है। यह उसका आत्म दिशा में पहला कदम यथाप्रवृतिकरण है, अब वह मन वच काया से होने वाली आराधना को गौण करके कायोत्सर्ग ध्यान में चित्तवृति के द्वारा अन्तर में खोज शोध प्रारम्भ करता है, ऐसा अपूर्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( घ ) करण दूसरा कदम है। ऐसी स्वाध्याय ध्यान में चित्तवृति के व्यायाम से आत्म समाधान होने पर वह निर्विकल्प-चित्त होता है। यह तीसरा कदम अनिवृतिकरण है। इन तीन करण के द्वारा जब उसे अपनी शुद्धात्मा का साक्षात्कार होता है, तब वह निश्चय से सम्यग दर्शी बन जाता है । यह उसकी आत्म-जागृति है। .. जो एक बार अमृत के स्वाद को चख लेता है, वह स्वभावतः विष की ओर दृष्टि नहीं करता, यदि कर्मों के दबाव से हो जाय तो उसे उपशम सम्यग्दर्शी कहते हैं, वह मुक्त तो होगा, लेकिन देर से होगा और जो उस अनुभूति को नहीं विसरता, कम बेश रूप से वह अनुभव रहता है, वह क्षयोपशम सम्यग दर्शी हैं अर्थात वह अधिक से अधिक १५ या १६ भव में मुक्त होता है, ऐसा सम्यग् दर्शी जब सामायक में अपने शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान में ध्यानस्थ रहता है अर्थात उसकी चित्तवृति अन्तमुखी होकर अपने सहज स्व पर प्रकाशक ज्ञायक स्वभाव में समाधिस्थ रहती है और अपने सहजात्म स्वरूप का अनुभव करती है तब वह आत्माश्रित समताभाव में है, यही उसका भाव सामायक है । ऐसे समताभाव में रहा हुआ वह नये कर्म नहीं बांधता तथा पुराने कर्मों को श्वासोश्वास में क्षय करता है। ऐसी साधना की सिद्धि होने पर आत्मा को केवलज्ञान प्रगट होता है। . दूसरा पराश्रित समताभाव "आत्मवत् सर्व जीवेषु" चेतन सत्ता की दृष्टि से सभी आत्मा मेरी आत्मा के समान है, इसलिये किसी की हिंसा नहीं करना अथवा मन वच काया से किसी को भी कष्ट नहीं देना, यदि शरीरादि के निर्वाह के कारण देना पड़ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाय तो हार्दिक पश्चाताप पूर्वक क्षमायाचना करना-'जिनधर्म नो सारए 'पाप आलोयां जाय' तीसरा शरीराश्रित समताभाव-सुख-दुःख जन्म-मरण लाभहानि सभी अवस्थाएं अपने पूर्वकृत कर्मों का फल है । इस लिये सुख, जन्म या लाभादि होने पर उसमें खुश न होना अर्थात आसक्ति रहित भोगना, दुःख, मरण, हानि आदि में चिन्तित नहीं होना-घबडाना नहीं-शान्त रहना,। ऐसे-ऐसे समता भावमय जीवन से पुराने कर्म खिरकर अलग हो जाते हैं और नये कर्म नहीं बंधते ऐसे संबर एवं निर्जरा भाव से जब सब घाति कर्म क्षय हो जाते हैं तब केवल्य प्रगट होकर मुक्त होता है। अध्यात्म ज्ञान, आत्म ध्यान बिना यह संभव नहीं। ऐसी जानकारी एवं साधना के लिये आत्म हित शिक्षा भावना का चिन्तन मनन अति आवश्यक हैं। अतः आपको इसमें जो भावना के पद पसंद हो, उसे नित्य-क्रम रूप से स्वाध्याय करने की विनती "अध्यात्मज्ञान आत्मध्यान समो शिव साधन और न कोई" ( योगीश्वर चिदानंद) निवेदक मुमुक्षू केशरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूची-पत्र ज्ञानसार १-आत्म शिक्षा भावना गा० १८५ प्रेमविजय सं १६६२ उज्जम १ २-आत्मनिन्दा ३-श्रावक के तीन मनोरथ ४-चार शरणा ( मुझने चार शरणा०) गा० ३ समयसुन्दर ५-आलोयणा (लाख चोरासी जीवखमावीए) गा० ३, ६-आलोयण स्त० (पाप अठारे जीव परिहरो ) गा० ३, २६ ७-वैराग्यपद (धन २ ते दिन मुझ कदि होसे ) गा० ३ ,, २९ -आलोयणा स्त० (आदीश्वर पहिलो अरिहंत) गा०५४ कमलहर्षे २६ ६-भक्ति मार्ग नो कंटक (माया डाकण दूरे भागी) गा० ३ ३४ १०-भक्ति रहितो ने उपालंभ (जिन मुख से नाम न समर्यो) गा०४ खीम ३५ ११-बारह भावना (१६) १२-पद्मावती आराधना (हवेराणी पदमावती) गा० ३६ समयसुंदर ४२ १३-क्षमा छत्तीसी (आदर जीव क्षमा गुण० ) गा० ३६ समयसुंदर ४५ १४-आलोयणा छत्रीसी (पाप आलोय तुं आपणा) गायें ३६, सं०१६९८ ४६ १५-आलोयणा ग० शत्रुजय स्त० (बे कर जोड़ी वीनवुजी), गा०३२ ५२ १६-श्री बैकुंठ पंथ (बैकुंठपंथ बीहामणो ) गा० ५६ भीममुनि सं० १६६६ ५५ ९७-समाधि विचार ( परमानंद परमप्रभु ) गा० ३८२ १८-भगवान महावीर का आत्मज्ञान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ वीतराग सर्वज्ञ देव नमः श्रीआत्मशिक्षामावना। ॥दोहा॥ श्री जिनवर मुख वासिनी, जगमें ज्योति प्रकाश । पदमासन परमेश्वरी, पूरे वंछित आश ॥१॥ ब्रह्मसुता गुण आगली, कनक कमंडलु सार । वीणा पुस्तक धारिणी, तु त्रिभुवन जयकार ॥ २ ॥ श्री सरस्वती पाय नमि, मन धरि हर्ष अपार । आतम शिक्षा भावना, भणु सुणो नर नार ॥३॥ रे जीव सुण तुं बापड़ा, हिये विमासी जोय । आप स्वारथी सहु मल्यं, ताहरु नहीं जग कोय ॥४॥ धर्म विना सुण जीवड़ा, तु भम्यो भव अनन्त । मृढपणे भव तें किया, इम बोले भगवंत ॥ ५॥ लाख चोरासी योनि मां, फरी लियो अवतार। एकेकी योनी वली, अंनत अनंती वार ॥६॥ चउद राज परमाणुआ, सूई अग्रभाग ठाम । कर्मवशे जीव तु भम्यो, मूरख चेत न ताम ॥ ७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षा भावना निगोद सूक्षम बादरे, पुद्गल अनंत अपार | एतो काल तुं तिहां रह्यो, हिवे कर हिये विचार ॥ ८ ॥ श्वासो उच्छ्वासा एकमां, मरण सतर अध कीध । सूक्ष्म निगोदमांहे वली, ए जिन वचन प्रसिद्ध ॥ ६ ॥ नरय विगलेंद्री तिर्यच गति, भव कीया बहु हेव । भवनपति व्यंतर ज्योतिषी, और विमानिकदेव ॥ १० ॥ इम भमतां भमतां लियो, मनुज जनम अवतार | मिथ्यात्वपणे भव निर्गम्या, काज न सीध लगार ॥ ११ ॥ जगमां जीव अछे बहु, एक शुं अनंती वार । विविध प्रकार सगपण किया, हैया साथ विचार ||१२|| तो कुण आपण पारकं, कुण वैरी कुण मित्त । राग द्वेष टाली करी, कर समता इक चित्त ॥ १३ ॥ पूर्व कोडिने आउखे, ज्ञानी गुरुह अपार । उत्पत्ति कहि जीव ताहरी कहतां नावे पार ॥ १४ ॥ पुत्र पित्तापणे अवतरे, पिता पुत्रपण जोय । माता सगपण नारि मली, नारी माता होय ॥ १५ ॥ सूतो सुपन जंजालमा, पाम्यो जाणे राज । जब जाग्यो तब एकलो, राज न सीझे काज ॥ १६ ॥ तिम ए कुटुंब सहु मल्युं, खोटी माया जाल । आयु पहोंचे आपणे, खिण थाये विसराल ॥ १७ ॥ सोदो लेयण जण मिले, जिहां जोड़ी सहि हाट । २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षा भावना आथ सारु विवसाय करी, फरि चाल्या निज वाट ॥ १८ ॥ तिम भव भमतां सवि मल्या, कुटुंब जोड़ि जो हाट । पुण्य पाप विवसाय करी, जो ऊतरिये घाट ॥ १६ ॥ इम कुटुंब मल्युं कारिम, माय अने वलि ताय । बंधू भगिनि भारजा, को केहनो न कहाय ॥ २० ॥ नव नव नाटक त वली, नाच्यो करि बहु रूप | नाटक एवं नाचिये, जो छुटे भव कूप ॥ २१ ॥ उत्तम कुल नरभव लही, पामि धर्म जिनराय । प्रमाद मूकी कीजिये, खिण लाखीणो जाय ॥ २२ ॥ जिस कीजे तिसुं पाईये, करे तैसा फल जोय । सुख दुख आप कमाइये, दोष न दीजे कोय ॥ २३ ॥ दोष दीजे निज कर्म ने, जिण नवि कीधो धर्म । धर्म बिना सुख नवि मले, ए जिनशासन मर्म ॥ २४ ॥ वावी कूरी कोदरी, तो क्युं लुणीये शाल । पुण्य विना सवि जीवड़ा, आशा आल पंपाल ॥ २५ ॥ आयु पोती आतमा, कोइ नवि राखणहार | इन्द्र चन्द्र जिनवर वली, गया सवि निरधार ॥ २६ ॥ मोहोटा मोट न कीजिये, न कीजे मोहोटी बात । कोडी अनंत में वेचियो, त्यारे किहां गइ जात ॥ २७ ॥ आप सरूप विचार तुं, जो हुई हियड़े ज्ञान | करणी हवी कीजिये, जिम वाधे जग वान ॥ २८ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षाभावना घड़पण धर्म थाये नही, जोबन एहले जाय । तरुण पणे धसमस करी, पछे फरी पछताय ॥ २६ ॥ जरा आवी जोबन गयं, शिर पलिया ते केश । ललता तो छोडी नहीं, न कस्यो धर्म लवलेश ।। ३० ।। पंचेंद्रिये जिहां परवड़ा, रोग जरा नावंत । जोबन चंचल आवे सदा, कर तु धर्म महंत ॥ ३१ ॥ छते हाथ न वावस्यो, संबल न कियो साथ । आय गइ मन चेतियो, पछे घसे निज हाथ ॥ ३२ ॥ धन जोबन नर रूपनो, गर्व करे तुगमार। कृष्ण बलभद्र द्वारिका, जातां न लागी वार ॥३३॥ आठ पहोर तु धसमसी, धनार्थ देशांतर जाय । सो धन मेल्युं ताहरू, औरज कोइ खाय ॥ ३४ ॥ आंख तणे फरूकड़े, उथल पाथल थाय । इस्यूं जाणी जीव बापड़ा, म करिश ममता माय ॥ ३५ ॥ माया सुख संसार मां, ते सुख सहिय असार । धर्म पसायें सुख मिले, ते सुख नावे पार ॥ ३६॥ नयन फरूके जिहां लगे, तिहां ताहरू सहु कोय । नयन फरुकत जब रही, तब ताहारु नहिं होय ॥ ३७॥ पाप कियां जीव तें बहू, धर्म न कियो लगार । नरक पड्यो यमकर चढ्यो, तिहां करे पोकार ॥ ३८ ॥ कोई दिन राणो राजियो, कोई दिन भयो त देव । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षामावना कोई दिन रांक तु अवतस्यो, करतो औरज सेव ॥ ३६ ॥ कोई दिन कोडी परिवर्यो, को दिन नहीं को पास । को दिन घर घर एकलो, भमे सही ज्युं दास ॥ ४० ॥ को दिन सुखासन पालखी, जेठमची चकडोल । | रथपाला आगल चले, नित नित करत कलोल ॥ ४१ ॥ को दिन कूर कपूर तुं, भावत नहीं लगार । को दिन रोटी कारणे, भमतो घर घर बार ॥ ४२ ॥ हीर चीर अंग पहेरियां, चुआ चंदन बहु लाय । सो तन जतन करत यौ, क्षिण मांही विघटाय ॥ ४३ ॥ सात गोखे त शोभतो, कामिनी भोग विलास । रहेणो ही वनवास ॥ ४४ ॥ इक दिन ओही आवशे, रूपे देवकुमार सम, देख मोहे नर नार । सो नर खिण एक मां वली, बलि-जलि होवे छार ।। ४५ ।। जे विन्द घडिय न जावती, सो वरसां सो जाय । ते वल्लभ विसरी गयो, ओरहि सं चित लाय ॥ ४६ ॥ देखत सब जुग जातुही, थिर न रही सवि कोय । इस्युं जाणी भलुं कीजिये, हियड़े विमासी जोय ॥ ४७ ॥ सुरपति सवि सेवा करे, राय राणा नर नार । आयु होते आतमा, जातां देखत नर अंधा हुवा, जे मोहे भण्या गण्या मूरख वली, नरनारी बाल गोपाल ॥ ४६ ॥ न लागे वार ॥ ४८ ॥ विंट्या बाल | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षाभावना रात दिवस निज नारिस, त रमतो मन रंग। जे जोइये ते पूरतो, ऊलट आणी अंग ॥ ५० ॥ सो रामा जीव ताहरी, क्षणमांही विघटाय । स्वारथ पहोचत जब रह्यो, तब फरि वैरी थाय ॥ ५१ ॥ समुद्र द्वीप सायर सबे, पामे को नर पार । नारी छिद्र चरित्रनो, को नवि पाम्यो पार ॥ ५२ ॥ बह्मा नारायण ईश्वर, इंद्र चंद्र नर कोड़। ललना वचने लालची, ते रह्या बेकर जोड़ ॥ ५३ ॥ नारी वदन सोहामणु, पण वाघण अवतार । जे नर एहने वश पड्या, तस लूंख्या घर बार ॥ ५४ ॥ हसतमुखी दीसे भली, करती कारमो नेह । कनकलता बाहिर जिसी, अंतर पित्तल तेह ॥५५॥ पहली प्रीत करि रंगस, मीठा बोली नार । नरने दास करि आपणो, मूके टाकर मार ॥ ५६ ॥ नारी मदन तलावड़ी, बूड्यो सयल संसार । काढनहारो को नहीं, बूडा बब निबार ॥७॥ वीशवसाना जे नरा, कोई नहीं तस वंक । नारी संगति तेहने, निश्चे चढे कलंक ॥ ५८ ॥ मुंज ने चंडप्रद्योतना, दासीपति पाम्या नाम । अभयकुमार बुद्धि आगलो, तेह ठग्यो अभिराम ॥ ५६ ॥ नारी नहीं रे बापड़ा, पण ये विषनी वेल । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षाभावना जो सुख वांछे मुक्तिनां, नारी संगति मेल ।। ६०॥ नारी जगमां ते भली, जिण जायो पुरुष रतन्न । ते सति ने नित पाय नम, जगमां ते धन धन्न ॥ ६१ ॥ तु पर काम करी सदा, निज काज न करिय लगार । अक्षत्र नक्षत्र करिय तं, किम छुटिस भव पार ।। ६२ ॥ पाप घड़ो पूरण भरी, ते लीओ शिर भार । ते किम छटिस जीवड़ा, न करी धर्म लगार ॥ ६३ ॥ इसुजाणी कुड़ कपट, छल छिद्र त छांड़ । ते छांडी ने जीवड़ा, जिन धर्मे चित मांड ।। ६४ ॥ जिण वचने पर दुख हुये, जिण होय प्राणी घात । क्लेश पडे निज आतमा, तज उत्तम ! ते बात ॥ ६५ ॥ जिम तिम पर सुख दीजिये, दुख न दीजे कोय । दुख देई दुख पामिये, सुख देई सुख होय ॥ ६६ ॥ पर तात निंदा जो करे, कूडां देवै आल । मर्म प्रकाशे परतणां, तेथी भलो चंडाल ॥ ६७ ॥ षटमासी ने पारणे, इक सिथ लहे आहार । करतो निंदा नवि टले, तसु दुर्गति अवतार ॥ ६८ ॥ छार ऊपर जिम लीपणु, तिम क्रोधे तप कीध । तस तप जप संजम मुधा, एके काज न सिद्ध ॥ ६ ॥ पूर्व कोडिने आउखे, पाली चारित्र सार । सुकृत सुणो सवि तेहनु, क्षणमा होवै छार ॥ ७० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षामाक्ना पर अवगुण सरसव समो, अवगुण निज मेरु समान । कां करे निंदा पारकी, मूरख आपण शान ॥ ७१ ॥ पर अवगुण जिम देखिये, तिम परगुण तुजोय । पर गुण लेतां जीवडा, अखय अजरामर होय ॥ ७२ ॥ क्रोधी नर अच्छे सदा, कहिये जो उलटी रीश । ते छोडी दूर आतमा, रहे जोयण पणवीस ॥ ७३ ॥ गुण कीधा माने नहीं, अवगुण मांडी मूल । ते नर संगति छांडिये, पग पग मां घा मूल ।। ७४ ॥ निंदा करे जे आपणी, ते जीवो जगमाय । मल मूत्र धोये परतणां, पछे अधोगति जाय ॥ ७५ ॥ जे मल मूत्र धोए सदा, गुणवंतना निशदीस। ते दुर्जन जीवो घणु, जगमां कोडि वरीस ॥ ७६ ॥ सज्जन दुर्जन किम जाणिये, जब मुख बोले वाण । सज्जन मुख अमृत लवे, दुर्जन विषनी खाण ॥ ७७ ॥ नरभव चिंतामणी लही, आले तु मम हार । धर्म करीने जीवडा, सफल करो अवतार ॥ ७८ ॥ सकल सामग्री ते लही, जिण तरिये संसार । प्रमाद वशे भव कां गमे, करनिजहिये विचार ॥ ७९ ॥ दियो उपदेश लागे नहीं, जो नवि चिंते आप। आप स्वरूप विचारतां, छुटीजे सवि पाप ॥ ८०॥ जिण रस पाप किया तुमे, तिण रस तु कर धर्म । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षाभावना अक्षत्र नक्षत्र भव अनंतनां, छुटीजे सवि कर्म ॥ ८१ ॥ जिम आऊखा दिन गुणी, वरस मास घडि मान । चेति सके तो चेतजे, जो होये होयडे शान ॥ १२ ॥ धन कारण तु जलफले, धर्म करि थाये सूर।। अनंत भवनां पाप सवि. क्षण मां जाये दूर ॥८३॥ जे रचना दिण ऊगती, ते रचना नहीं सांझ । इस्यु जाणी रे जीवडा, चेतहि हियडा मांझ ॥ ८४ ॥ आशा अंबर जेवडी, मरवु पगला हेठ। धर्म विना जे दिन गया, तिण दिन कीधी वेठ ॥ ८५ ।। रे जीव सुण तु बापड़ा, म करिश गर्व गवार । मूल स्वरूप देखी करी, निज जीवशुतु विचार ॥ ८६ ॥ कर्मे को नवि छुटिये, इन्द्रचंद्र नर देव । राय राणा मंडलिक बली, अवर नर ज कुण हेव ॥ ८७॥ वरस दिवस घर घर भम्या, आदिनाथ भगवंत । कर्म को दुख तिणे लह्यां, जे जगमां बलवंत ॥८८ ॥ पास जिमंद प्रतिमा रही, उपसर्ग कियो सुरिंद। ते उपसर्ग ने टालियो, पदमावती धरणीन्द्र ॥ ८६ ॥ काने खीला घालिया, चरणे रांधी खीर । तेहुने कर्मे नडयों, चौवीशमा श्री वीर ।। १० ।। मल्ली माया तप करी, पाम्या स्त्री अवतार । सुरपति कोड़ी सेवा करी, कर्मनो एह प्रकार ॥ ६१ ॥ पुरुष विषे चूामणि, भरत नरेसर राय । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० आत्मशिक्षा भावना " बाहुबलि हार मनावियो, आज लगे कहेवाय ॥ ६२ ॥ कीधां कर्म न छूटिये, जेहनो विषमो बंध | ब्रह्मदत्त नर चक्कबई सोल वरस लगे अंध ॥ ६३ ॥ आठमो सुभूम चक्कवी, ऋद्धि तो नहीं पार | कर्मवशे परिवारशु बूडा समुद्र मकार ॥ ६४ ॥ पांच पांडव अतुल बली, तेह भम्या वनवास । इस्या पुरुष जगमांवली, दीनपणे फर्यो निराश ॥ ६५ ॥ राम लखमण जगमां वली, जेहनूं जपे सहु नाम | ते वनवास मांहें रह्या, जे बहु गुणना धाम ॥ ६६ ॥ रावण विकट रामे हण्यो, कृष्णे हण्यो जरासंध । जराकुमर हरिने हण्यो, देखो कर्म नो बंध ॥ ६७ ॥ निज पुत्री ताते वरी, तस कूखे कर्मवशे जीव ऊपनो, त्रिपृष्ट भमतां भमतां अवतर्यो, देवानंदानी कूख । ब्यासी रात्रि तिहां रही, कर्मे ला, वलि दुख ॥ ६६ ॥ इंद्र अहिल्याशुं जुओ, लुब्ध हुओ सुरदेव । ईश्वर देव नचावियो पारवती पियु हेव ॥ १०० ॥ मासखमण ने पारणे, कूलवालुओ अणगार । चितवलग्यु संग नारिये, चूकत न लागी बार ॥ १०१ ॥ पांचशे रामा तजी, लीधो संयम भार । दश दश नंदिषेण बुझवी, नर वेश्या दरबार ॥१०२॥ बांधी तांतण सूत्रना, विट्यो आर्द्र कुमार । Jain Educationa International सुत हेव । वासुदेव ॥ ६८ ॥ For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षा भावना सुत मोहिनी वशे रह्यो, पछि लियो संजम भार ॥ १०३ ॥ पंचसया मुनि नेमना, और श्री पासना वार । भोगकारण संयम तजि, मांड्या तिणे घरबार ॥ १०४ ॥ नवाणु कोडी कंचन तजि, और तजि आठे नार । ते दुःकर नित वंदिये, श्री जंबू ऋण एक कन्या कोडी कंचन, तजि जेणे वलि वयरस्वामि ने वंदीये, नित ऊगमते सूर ॥ १०६ ॥ नवाणु पेटी सुरतणी, नित नित होय निर्माल्य । काल ॥ १०५॥ दूर | नरभवं सुरसुख भोगवे, ते शालिभद्र कुमार ॥ १०७ ॥ रत्नकंबलने कारणे, श्रेणिक आव्यो द्वार | गोख थकी बोली रह्यो, लीयो संजम भार ॥ १०८ ॥ आठ नारी जेणे तजी, ते धन्नो धन धन्न । नारी हास्य संयम लीयो, राख्युं ठाम जिणे मन्न ॥१०६ ॥ षट् नंदन देवकी तणा, भद्दिलपुर सुलसा नार । तास घरे ते उच्छर्या, रूपे देवकुमार ॥ ११०॥ बीस बीस पदमणी, बत्रीस बत्रीस हेम कोड । नेम समोप संयम वरी, ते वंदू कर जोड ॥ १११ ॥ सहस्स पुरुषशुं संयम लियो, श्री नेमीसर हाथ । ते थावच्चा वंदिये, मोच्छव कर्यो यदुनाथ ॥ ११२ ॥ बार वरष छठ आंबिल, कीधां शिवकुमार । शीयलव्रत सदा धरी, ए पण दुक्करकार ॥११३॥ कोश्या मंदिर चौमासुं रही, चोरासी चौवीस । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ११ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षाभावमा ते थूलिभद्र मुनि वंदिये, मद्रबाहु गुरु शिष्य ॥११४॥ कपिला संगे नवि चल्यो, शेठ सुदर्शन चंग। शूली सिंहासन थई, सुर करे मनने रंग ॥११॥ शिवरमणी ने कारणे, जिण सुख छंड्या देह । तस नामदोय चार लीजिये, भविजन सुणजो तेह ॥११॥ वरस दिवस काउसग्ग कियो, बाहूबल अणगार। मानगजेथी ऊतस्यो, तब लियो केवल सार ॥११॥ गजसुकुमाल शिर सोमले, देखि धस्या अंगार। समता पसाये ते वली, पाम्या भवनो पार ॥११८॥ मेतारज शिर सोनिये, वाधर विंट्यो धरि खेद । निजमन ठामज राखियु, कियो संसार नो छेद ॥११६|| सुक्कोसल सुकुमाल मुनि, बलुयु वाघण अंग। बापनी जामि मा भखी, शिवपुरि वरि मनरंग ॥१२०॥ पूर्वभव प्रिया शियालणी, तिणे भख्यो अवंतीसुकुमाल । नलिनीगुल्म विमानमां, पाम्या सुख तत्काल ।।१२१॥ पंचशत शिष्य खंक्क तणा, घाणी पील्या सोय। शिक्नयरी शिव पामिया, ए समता फल जोय ॥१२२॥ चिलायतिपुत्र नारी शिर, छेदीने कर लीध । उपसम संवर विवेकथी, कृतकर्म दूरे कीध ॥१२॥ दिन प्रति सात हत्या करी, अर्जुनमाली नाम । परिसह देखि क्षमा धरी, पाम्या शिवपुर ठाम ॥१२४।। मुनिपति मुनि काउसग्ग रहे, अग्नि दाधी बेह। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षाभावना परिसह सही पदवी वरी, अमर वधू धरि नेह ॥१२५॥ वंश उपर नाटक करी, एलापुत्र कुमार। जाति-समरण ऊपर्नु, ज्ञान अनंत अपार ॥१२६।। कर्म वशे आषाढ मुनि, भरतनु नाटक कीध । अनित्य भावना भावतां, तिणे तिहां केवल लीघ ॥१२७॥ सुशिष्य पंथकजी मुनि, गुरु प्रमाद कियो दूर । शत्रुजय अणसण करी, ते वंदु गुण सूर ॥१२८।। चंडरौद्र गुरु खंधे करी, रजनी कियो विहार । शिष्य पण केवल पामियो, तिम गुरु केवलधार ॥१२६।। षट्मासीने पारणे, ढंढण नाम कुमार। मोदक चूरत पामियो, केवलज्ञान उदार ॥१३०॥ षट् खंड राज हेलां तजि, लीधो संजम भार । षट्दश रोग इहां सह्या, श्री सनत्कुमार ॥१३१॥ कूरभखतां केवल लह्य, कूरगडु अणगार । क्षमा खड़ग हाथे धरी, जे मुनिमा सिणगार ॥१३२॥ पंखी प्राणज राखवा, करि खंडोखंड देह । मेघरथ रायतणे भवे, प्रसन्न हुओ सुर तेह ॥१३३॥ वंदी वीर गुमानसु, दशार्णभद्र नरसिंह । सुरपति पाय लगाडियो, जग राखी जिण लीह ॥१३४॥ प्रसन्नचंद्र काउसग्गमां, कोपी युद्ध करंत । कोप शम्यो केवल लह्य, मोहटो ये गुणवंत ॥१३५॥ अइमंतो सुकुमाल मुनि, वखाण्यो वीर जिणंद । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षाभावना. इरियावही पडिक्कमता, केवल लह्य, आणंद ॥१३६॥ वीरजिन वचने थिर रह्यो, श्रेणिक सुत मेघकुमार। जातिसमरण पामियो, करि दो नयणां सार ॥१३॥ हाट वेचाणी चंदना, सुभद्रा चढ्यु कलंक।. . दमयंती नल वियोग लह्यो, एह कर्मनो वंक ॥१३८॥ कलावती कर छेदिया, द्रौपदी काढ्यां चीर। .. अग्नि शीतल सीता कस्यो, शील गुणे थ नीर ॥१३९॥ चंदना चरण मृगावती, खमावि निज अपराध । केवल लहि गुरुणी दियो, दो जीव टल्यो विषवाद ॥१४०॥ चंद कलंक सायर कर्यो, खारो नीर किरतार। नवसो नवाणु नदी तणो, देखो ए भरतार ॥१४१॥ हरिचंदराय करम वशे, शिर वद्य डुब घर नीर। कर्म वशे नर सवि नम्या, जे जग बावन वीर ।।१४२॥ गउ ब्राह्मण स्त्री बालक, दृढ़प्रहारे हत्या कीध । चार पोल काउसग्ग रही, षट्मासे केवल लीध ॥१४३।। मेरू ढले ने ध्रुव चले, सायर लोपे लीह । कीधां कर्म न छुटिये, जो ऊगे पश्चिम दीह ॥१४४॥ कीधा कर्म तो छुटिये, जो कीजे जिनधर्म । मन वच कायाये करी, ए जिनशासन मर्म ॥१४५।। कर्म प्रकाशी आपणां, मन शुद्ध आणंद पूर । सुहगुरु पास अच्छे वली, जाय पाप सवि दूर ॥१४६।। बलवंत अनंता जे नरा, केइ सुर सुभट जूझार । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षामावना कर्म सुमट जुओ एकले, सबी मनाव्या हार ॥१४७॥ कर्म सुभट विषम विकट, ते वश कियो न जाय। जे नर एहने वश करे, हूँ वंदू तस पाय ॥१४८॥ इम जाणीने कीजिये, जिम आतम सुख थाय । पर जीव दुःख न दीजिये, इम बोल्या जिनराय ॥१४॥ दान शियल तप भावना, धर्म नां चार ए मूल । पर अवगुण बोलत सही, ए सउ थाए धूल ॥१५०।। दान सुपात्रे दीजिये, तस पुण्यनो नहीं पार । सुख संपति लहिये घणी, मणि मोती भंडार ॥१५१।। धन्नो सारथपति जुवो, घृत वोहराव्यु मुनि हाथ । दानप्रभावे जीवडो, प्रथम हुवो आदिनाथ ॥१५२॥ दान दियो धन सारथी, आनंद हर्ष अपार । नेमनाथ जिनवर हुवा, यादव कुल सिणगार ॥१५३॥ कलथीकेरा रोटला, दीधुं मुनिवर दान । वासुपूज्य भव पाछले, जिनपद लह्य निदान ॥१५४॥ मुनि भूल्यो एक मारगे, वोहराव्या तस आहार । साथ मेल्यो ते सारथी, ते वीर जगदाधार ॥१५५।। सुलसा रेवती रंगसुं, दान दियो महावीर । तीर्थकर पद पामशे, लहेशे ते भवतीर ॥१५॥ दाने भोगज पामिये, शियले होय सौभाग। तप करि कर्मज टालिये, भावना शिवसुख माग ॥१५७॥ भावना छे भव नाशिनी, जे आपे भवपार । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मशिक्षा भावना भावना वडी संसार मां, जस गुणनो नहीं पार ॥ १५८॥ अरिहंत देव सुसाधु गुरु, केवलि भाषित धर्म । इसु समकित आराघतां छूटीजे सवि कर्म ॥१५el नवपद जापज कीजिये, चउद पूरवनो सार । इस्यो मंत्र गुणिये सदा, जे तारे नर नार ॥ १६०॥ सकल तीरथ नो राजियो, कीजे तेहनी यात्र । जस दरिसणे दुर्गति टले, निर्मल थाये गात्र ॥ १६१ अष्टापद अबुंदगिरि, समेतशिखर गिरनार । पांचे तीरथ वंदिये, मन घरि हर्ष अपार ।।१६२ ॥ ऋषभ शांति जग नेमि जिन, पार्श्व अने वर्द्धमान | पांचे तीरथ प्रणमतां, नित वाधे जिम वान ॥११३॥ उत्तम नर नारी तणां नाम कह्यां ए मांय । नाम निरन्तर लीजिये, जिम सहि आणंद थाय ॥१६४ आतम शिक्षा भावना, गुण मणि रयण भंडार । पाप टले सवि तेहनां, जेह भणे नर नार ॥१६५॥ आतम शिक्षा भावना, जे सुणे हर्ष अपार । नवनिधि तस घर संपजे, पुत्र कलत्र परिवार ॥१६६॥ ए सुणतां सुख ऊपजे, अंग टले सवि रीस । समता रसमां जीवडो, झीले ते निशदीस ॥ १६७॥ इण भव परभव भव भवे, जिन मांगू हुं हेव । मन वच कायाये करी, द्यो तुम चरणनी सेव ॥१६८॥ ए गुण जिहां भावएँ, तिहां राग वेलाउल थाय Jain Educationa International ' For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मशिक्षाभावना आतम शिक्षा नामथी, सुरनर लागे माय ॥१६॥ वीर-शासन दीपावतो, आणंदविमल सूरींद । प्रमाद पंथ दूरे कर्यो, प्रणमु तेह आणंद ॥१७०॥ तास शिष्य मुनीसर धणी, श्री विजयदानसूरीश । प्रगट महिमा तस जागतो, पाय नमे नर ईश ॥१७१॥ उपशम रसनो कूपलो, तास पट्टधर हीर। सकल सूरि शिरोमणि, सायर सम गंभीर ॥१७२।। हीरविजय गुरु हीरलो, प्रतिबोध्यो अकबर भूप । राय राणा सेवा करे, जेहनु अकल स्वरूप ॥१७३।। म्लेच्छराय जिणे वश कर्यो, जग बर्तावि अमार । विमलाचल मुक्तो कियो, शासन शोभाकार ॥१७४॥ कुमारपाल प्रतिबोधियो, श्री श्रीहेमसूरींद । तिम अकबर गुरु हीरजी, मन धरि अति आणंद ॥१७५।। ध्यान वशे निज पद दियो, निज मन हर्ष अपार । विजयसेनसूरिनामथी, नित होय जय जयकार ॥१७६।। कामकुम्भ चिंतामणी, कल्पतरु अवतार । ते सविनी जेह सिद्धिथी,अधिक ए भवि विचार ॥१७॥ विजयसेन गुरुराय वर, विजयदेवसूरींद । विजयमान गुरु वंदिये, जिम सूरज अरु चंद ।।१७।। तपगच्छ वाचक में वरु, विमलहर्ष शिरताज । नामें नवनिधि संपजे, दरिसण सीझे काज ॥१७६।। आतम-शिक्षा-भावना, तास शिष्य मनरंग । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आत्मशिक्षा भावना प्रेमविजय प्रेमे करी, ऊलट आणी अंग ॥ १८०॥ श्री रत्नहर्ष विबुध मुझ, बंधु तास पसाय । तास सानिध ग्रंथ में कर्यो, मन धरि हर्ष अपार ॥ १८२॥ मूढ मति छे माहरी, कवि मत करजो हास । कृपा करी मुझ ऊपरे, शोधी करजो खास ॥ १८२ ॥ संवत् सोल बाराट्ठिए, वैशाख पूनम जोय । वार गुरु सहि दिन भलो, एह संवत्सर होय ॥ १८३॥ नयर उज्जेणीमां वली, आतम-शिक्षा नाम । मन भाव धरि ने तिहां करी, सिधां वंछित काम || १८४ ॥ एक शत एशी पांच ए, दोहा अति अभिराम । भणे गुणे जे सांभले, तेह लहे शिवठाम ॥ १८५ ॥ ॥ आत्म-निंदा ॥ हे आत्मन् ! हे चेतन ! तू ज्ञानस्वरूप है । फिर अज्ञानियों जैसी हरकतें क्यों करता है, जैसे, कुदृष्टि, कुश्रद्धा से अकार्य में प्रवर्त्त कर विषय रस- गृद्धिपना खोटी दृष्टि का चिंतन मत कर, कभी तू सम्यक्त्व मोहनी में कभी मिश्रमोहनी में कभी मिध्यात्व मोहनी में, कभी कामराग में, कभी स्नेहराग में, कभी दृष्टिराग में, कभी कुगुरु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म निन्दा में, कभी कुदेव में, कभी कुधर्म में, कभी ज्ञान-विराधना में, कभी दर्शन-विराधना में, कभी चारित्र-विराधना में, कभी मनोदंड में, कभी वचन-दंड में, कभी काय-दंड में, कभी हास्य में, कभी रति में, कभी अरति में, कभी भय में, कभी शोक में, कभी दुगंछा में, कभी कृष्ण लेश्या में, कभी नील लेश्या में, कभीकापोत लेश्या में,कभी ऋद्धिगारव में, कभी रस-गारव में, कभी साता-गारव में, कभी माया-शल्य में, और कभी नियाणा-शल्य में, कभी मिथ्यादर्शन शल्य में लीन रहता है। कभी तेरह काठिये और कभी अठारह पापस्थानक तुझे चारों ओर से घेरे रहते हैं। हे आत्मा! इस प्रकार से तूं मत बन। रे अज्ञानान्ध ! अघोर पापी! हे दुष्ट जीव ! प्रायः तुझे अनंतानुबंधी क्रोध, अनंतानुबंधी मान, अनंतानुबंधी माया और लोभ की चौकडी खपी नहीं, न तेरे गुणठाणा ही पलटा, और न धैर्यता ही प्राप्त हुई न तृष्णा, दाह मिटी, और न आकुल व्याकुलता ही मिटी। जिस प्रकार समुद्र में लहरें उछलती हैं, उसी प्रकार तुझ में भी तृष्णा की लहरें उछल रहीं हैं। तू जो क्रिया करता है सो शून्य मन से करता है। यदि समझ के साथ शांत मन से करेगा तब ही तुझे फल देने वाली होगी, शून्य मन से की हुई क्रिया इस प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार राख पर लीपा हुआ लीपण। हे चेतन ! जो सोगन नहीं ले याने नियम रहित रहे वह पापी है और जो सोगन लेकर जान बूझ के तोड़ डाले वह महापापी है। क्योंकि तूने अनंतकाय, अभक्ष, शीलवत, चरस, गांजा, अफीम, भांग, तमाखू , आदि के सोगन लेकर तोड़ डाले; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म निंदा अरे! तेरा कहां छुटकारा होगा । अरे चेतन ! तूं पुद्गल (शरीर ) के वास्ते कितना आकुल व्याकुल बना रहता है ? कि मुझे पारस पत्थर (एक प्रकार का पत्थर होता है जिसके लोहा स्पर्श करने से सोना हो जाता है), नव निधान, रसकुँपी (लोहवेधी रस), रसायण, चित्रावेल, अमृत गुटिका, आदि मिल जाय अथवा देवता को वश करूं या बादशाह हो जाऊं, सेठ हो जाऊं, सेनापति हो जाऊं, इस प्रकार जैसे तैसे करके पौद्गलिक सुखादि उपार्जन करू, ऐसे अनेक प्रकार के चिंतन करता रहता है । और ऐसा होता भी है, क्योंकि इसमें गुणस्थानक वाले को लोभ छूटा नहीं तो तेरी गरज कैसे पूरी हो ? अरे चेतन ! तू मन में चिंतन कर रहा है कि मेरा घर, मेरा पिता, मेरा पुत्र, मेरा कुटुम्ब, मेरा शरीर, अरे चेतन ! चौरासी लक्ष योनि में फिरकर लाखों घर किये, और फिर करता फिरता है, तो भी तुझे स्थिरता नहीं हुई, संसार में न तो तू किसी का है और न कोई तेरा है। अरे! तेरी उत्पत्ति को तो देख! कि कोई वक्त तो तू माता, कोई वक्त पिता, कोई वक्त पुत्र, कोई वक्त पुत्री एवं कोई वक्त स्त्री आदि हुआ, अरे! तेरे इस नाच को तो देख कि कितने ढंग बदले ? तो भी तँ अपनी चाल छोड़ना नहीं चाहता । एक ठग की लड़को ने कहा था 'हे माता पिता ! मैं इतने पाप करती हैं तो उनका फल कौन भोग करेगा ?' तब माता-पिता बोले, हे बेटी ! जो करेगा सो ही भुगतेगा ( भोगेगा ) वास्ते हे जीव ! धिक्कार हो इस संसार के रहने में, कोई किसी का नहीं यह मनुष्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म निंदा २१ जन्म, आर्य देश, आर्य कुल, श्रावक नाम धरानेवाला शरीर, जिन प्रभु का धर्म, अनेक पुण्य के बंध से तो प्राप्त हुआ और ऐसे मनुष्य जन्म को पाकर तूने मूर्ख ब्राह्मण के जैसे चिंतामणिरत्न रूप धर्म को खो दिया, अब तेरी आत्मा की गरज किस तरह पूरो हो ? रे चेतन ! तू कहता है मैं, परंतु तू कौन ? विष्टा ( नर्क ) में पैदा होकर धीरे धीरे वृद्धि को प्राप्त हुआ है । तथा ईर्षा सहित मान दशा वाले बाहुबलजी थे उनको तो ब्राह्मी सुन्दरी सरीखे समझाने वाले मिल गये थे जब समझे किन्तु हे चेतन ! ऐसा मान रखने से तेरा क्या हाल होगा ? अरे चेतन ! तू विचार कर ! भरत महाराज को कितनी राज-ऋद्धि एवं सौभाग्य था, वे भीए क वक्त आत्म-मावना लाकर विचारने लगे कि अरे ! मेरे इस महाराज्य को धिकार हो, पाट ( सिंहासन ) को धिक्कार हो, चक्रवर्ती पदवी को धिक्कार हो, अरे ! विषय सुख को धिक्कार हो, जो महाशय व्रत पालते हैं उनको धन्य है, उस धर्म को धन्य है, जो दान देवे वह धन्य है, जो शीयल पाले वह धन्य है, जो तपस्या करता है वह धन्य है, जो भली भावना भाता है वह धन्य है। ऐसी भावना भाने से भरतादिक को केवलज्ञान, केवलदर्शन हुआ। अरे जीव ! तूं उनकी बराबरी मत कर, क्योंकि वे तो सठशलाका पुरुष चरम शरीरवाले चौथे आरे के जीव थे और तू तो पांचवें काल ( पंचम आरे ) का जीव भरतक्षेत्र का कीड़ा है, कितना फर्क ? अरे चेतन ! कर्म जड़ वस्तु और तू जोव वस्तु है, विचार कर कि जीव-जीव से तो हमेशा परिचय करता है, परंतु तू अजीव से क्यों करता है ? क्योंकि तू Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ आत्म निंदा निर्बल है और कर्म सबल हैं, अरे चेतन ! कर्म ने तो चौदा पूर्व के धारक को भी उठाकर गिराया, ग्यारहवें गुणस्थानक के जीव भुवनभानु केवलीजी, व कमलप्रभ आचार्यजी महाविदेह के मनुष्य जैसों को भी डिगा दिया तो तू किस बाग की मूली हे ? । आठ क की एक सौ अट्ठावन प्रकृति होती हैं, हे प्रभु ! कैसे जीती जा सके ? मोहिनी कर्म जिसके पीछे लगा उसे कैसे जीता जाय ? हे चेतन ! चारित्र फोज में निवास कर सद्बोध सेनापति की आज्ञा में रह, हमेशा आगम से परिचय रख, संतोषरूपी गुण ग्रहण करके तृष्णा रूपी दाह को निकाल बाहिर कर ! जिससे तेरी आत्मा का कल्याण हो। धन्य है उन साधु मुनिराजों को जो पाँच समिति से समेता, तीन गुप्ति से गुप्ता, छ काया के पालने वाले सात बड़े भय हैं, उनको टालने वाले, आठ मद को जीतने वाले, नव ब्रह्मचर्य की वाड की रक्षा करने वाले, दस प्रकार के यति धर्म को उज्ज्वल करने वाले, ग्यारह अग के पढ़ने वाले, बारह उपांगों को जानने वाले, सदा उदासीन भाववाले, ऐसे चारित्र पालने वाले को धन्य है कि जो प्रभु की आज्ञा में रहकर धर्म का पालन करते हैं। अरे चेतन ! तुझे भी कभी उदय होगा ? अरे ! तुझे होवे कहां से, क्योंकि तू तो संसार में बहुत ही फंसा हुआ है। धन्य है उनको कि जो देशव्रती श्रावक हैं, वे प्रतिक्रमण करते हैं, प्रभु की आज्ञा में रहकर धर्म का पालन करते हैं, सबेरे सामायिक करते हैं, तीर्थकरों के दर्शन करते हैं, प्रभु की बारह प्रकार की वाणी को सुनते हैं। देव की ( जिन देव की) पूजा, जिन देव की वंदना, दान, तपश्चर्या, शील, पर्व के दिन पोसा, सन्ध्या समय देवसी प्रतिक्रमण करते हैं, उस प्रकार हे चेतन ! तुझे धर्म कब उदय होगा ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनिन्दा ॥ चौपाई ॥ सामायिक शुद्ध मन से करो, निंदा विकथा सब परिहरो । राग द्वेष करो नहीं मन, जिससे छुटे जीव से तन ॥ परन्तु तुम्हारी सामायिक तो यह है । ॥चौपई ॥ सामायिक अशुद्ध करो, निंदा विकथा अति ही करो । राग द्वेष भरा अति मन, कभी न छूट जीव से तन ॥ २ ॥ वास्ते सामायिक इस प्रकार करो - ॥चौपई ॥ सामायिक शुद्ध मनसे करो, निंदा विकथा मद परिहरो । पढो गुणो वाचन सब करो, जिम भवसागर लीला तिरो । अरे चेतन ! तुझे बांचने की आदत कहां ? क्योंकि तूने श्रुतज्ञान को बहुमान नहीं दिया, इसलिए तुझ पर ज्ञानावर्णी कर्म का अंकाररूपी पड़दा पड़गया है श्रुतज्ञान की जो आराधना करते हैं, और श्रुतज्ञान का जो अति आदर ( सत्कार ) करते हैं, उनके ज्ञान, दर्शन और चारित्र निर्मल होते हैं, और उन्हीं को ज्ञान की प्राप्ति होती है, जिसको केवलज्ञान की और केवल दर्शन की प्राप्ति होती है, वे ही मोक्षरूपी लक्ष्मी को वरते हैं, अर्थात् प्राप्त करते हैं । परन्तु हे चेतन ! तू इस भरोसे में मत रहना, यह तेरी सामायिक वैसी नहीं है वह सामायिक तो उत्तम पुरुषों ने की है जैसे कि आनन्द, कामदेव, संख, पुष्कल, पूरणसेठ ओर चंद्रावतंसक राजा ने की थी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only · Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आत्म निन्दा अरे चेतन ! तेरी मामायिक तो यह है - ॥चौपई॥ त्रितवन करे गृह कार्य कहे, निंदा, विकथा, कर खीज रहे। आर्त रौद्र ध्यान मन में धरे, वह सामायिक निष्फल करे । सामायिक इस प्रकार करनी चाहिये ॥चौपई ॥ अपना पराया सम गिने, कंचन पत्थर समवड़ धरे। सच्चा सम पर रुचि से पढ़े, वह सामायिक शुद्ध करे । चन्द्रावतंसक राजा ने जो सामायिक व्रत का पालन किया वह इस तरह नहीं किया था, कि अपनी आत्मा का भला चाह कर दूसरी आत्मा का बुराँ चाहेउसने पराई आत्मा का बुरा चिंतन नहीं किया किन्तु स्वआत्मा को ही बुरा कहा। अरे चेतन ! तू कंचन की तो इच्छा करे और पत्थर को दूर फेंके, सो उसमे कंचन की प्राप्ति होना तो दूर रहा उल्टे पत्थर ही मिलेंगे। तू तो भूठ ही बोलता रहा है, यदि तू तेरे गुण ही का चिंतन करे तो तू अवेदी, अफरसी, अघाती, अविनासी है । यह मेरे दुश्मन, यह मेरे सज्जन, परन्तु कौन तेरा दुश्मन है ? और कौन सज्जन ? हे चेतन ! तेरे तो आठ कर्मरूपी शत्रु ही बरी हैं। इसको ज्ञानरूपी आग से भस्म कर दे। जिससे तेरी आत्मा का कल्याण हो । मैं भव्य हूँ या अभव्य हूँ, या दूर भव्य हूँ, या मुझे स्वतः ही संसार बहुत दीखता है। परन्तु मैं तो प्रायः अभव्य ही दीखता हूँ फिर तो ज्ञानी पुरुष जाने । अरे चेतन ! सामायिक तो तू Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक के तीन मनोरथ २५ करता है, परन्तु खाज खुजाता, कडके मोडता और निद्रा ले घोर शब्द करता है । अरे! तेरी सामायिक तो ज्ञानी स्वीकार करेंगे तब ही फल यक होगी। ॥ दोहा ॥ कीन । आतम-निंदा आपकी, ज्ञानसार मुनि जो आतम-निंदा करे, सो नर सुघड़ प्रवीन ॥ ॥ इति आत्मनिंदा सम्पूर्ण ॥ श्रावक के तीन मनोरथ ( नीचे लिखे तीन मनोरथों को चिंतन करने से निर्जरा होकर संसार का अन्त होता है ) पहिला मनोरथ बाह्य एवं अभ्यंतर परिग्रह महापाप का मूल है, दुर्गति का देने वाला है, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, विषय और कषाय का स्वामी है, महा दुख का कारण, अनर्थकारी, दुर्गति की शिला, बुरी लेश्या का परिणामी है। अज्ञान, मोह, मत्सर, राग और द्वेष का मूल है। दस प्रकार के यति धर्मरूप कल्पवृक्ष को दावानल समान है। ज्ञान क्रिया क्षमा दया सत्य संतोष एवं बोधिबीजरूप समकित का नाश करने वाला है । संयम • और ब्रह्मचर्य का घातक है। कुमति दुर्बुद्धिरूप दुख दारिद्र का देने वाला Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Somal श्रावक के तीन मनोरथ है । सुमति एवं सुबुद्धिरूप सौभाग्य का नाश करने वाला है । तप संयम रूप धन को लूटने वाला है। लोभ क्लेश रूप समुद्र को बढ़ाने वाला है । जन्म जरा और मरण का करने वाला है। कपट का भंडार, मिथ्यादर्शन रूप शल्य युक्त, मोक्ष मार्ग का विघ्नकारी, बुरे कर्म विपाक का देने वाला और अनंत संसार को बढ़ाने वाला महापापी है। पांच इंद्री के विषय रूप बैरी की पुष्टि करने वाला, नाना प्रकार की चिंता शोक और खेद को करने वाला है । संसार रूपी गहरी वल्लि का सिंचन करने वाला है। कूड कपट एवं क्लेश का मानो घर है । खेद उत्पन्न करने वाला मन्द बुद्धि का दरिया है । उत्तम साधु निग्रंथों ने भी इसकी निंदा की है । तीनों लोक में तमाम जीवों को इसके सदृश कठोर दुःख देने वाला दूसरा कोई नहीं है । मोहरूपी पाश का प्रतिबन्धक है। इस लोक और परलोक के सुख का नाश करने वाला है। पांच आश्रवका मानो घर है और अनन्त दारुण दुख एवं भय को देने वाला है। सावध व्यापार कुवाणिज्य कुकर्मादान का कराने वाला है-अध्रुव, अनित्य, अशास्वता, असार, अत्राण, अशरण ऐसे जो आरम्भ और परिग्रह हैं उनको मैं कब छोडूंगा वह दिन मेरे लिये धन्य है कि जिस रोज मैं इनको छोडूं । दूसरा मनोरथ - मैं अनागारी होकर दश प्रकार से यति धर्मधारी, नव प्रकार से विशुद्ध ब्रह्मचारी, सर्व सावध परिहारी, साधु के सत्तावीस गुण युक्त, पांच समिति तीन गुप्ति से विशुद्ध विहारी, मोटे अभिग्रह का धारी, बयांलोस दोष रहित विशुद्ध आहारी, सत्तरा प्रकार से संयमवारी, बारा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक के तीन मनोरथ प्रकार से तपस्या करने वाला, अन्त आहारी, प्रान्त आहारी, अरस विरस आहारी, लक्खा तुच्छ आहारी, अन्तजोवी, प्रांतजीवी, अरसजीवी, विरसजीवी, लुक्ख जीवी, तुच्छजीवी, सर्वरस त्यागी, छ काय प्रतिपालक, निर्लोभी, निस्वादी, पक्षी एवं हवा के समान अप्रतिबद्ध विहारी, वीतराग परमात्मा का आज्ञानुयायी, जिस दिन होऊँगा वह दिन मेरे लिये धन्य है ॥ तीसरा मनोरथ मैं तमाम पापस्थानकों की आलोयग लेकर निःशल्य हो, सर्वजीव राशि को खमा के, सब व्रत सम्भालते हुए, अठारह पापस्थानकों को त्रिविध त्रिविध वोसिराता हुआ, पंडित मरण प्राप्त करू___ चारों आहारों का पच्चक्खाण कर शरीर को आखरी श्वासोश्वास में वोमिराकर तीनों आराधना आराधन करता हुआ, मंगलकारी चार शरण उच्चारण करता हुआ संसार को पीठ देता हुआ मैं पण्डित मरण प्राप्त करू। __ अरिहंत देव, दूसरे सिद्ध भगवान, तोसरे साधु महाराज, और चौथा केवली प्ररूपित धर्म को आराधन करते हुए शरीर पर से मोह उतारकर, पादपोपगमन संथारा सहित पांच अतिचार टालते हुए एवं मृत्यु समय जीने मरने की इच्छा रहित मुझे पंडित मरण प्राप्त हो । * तीनों मनोरथ सम्पूर्ण * Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार शरण ॥ अथ चार शरणा॥ मुझने चार सरणां होजो, अरिहंत सिद्ध सु साघोजी ॥ केवलीए धर्म प्रकाशियो, रत्न अमोलख लाघोजी ।। मु०१॥ चउगति तणा दुःख छेदवा, समरथ सरणो एहजी ॥ पूरव मुनीसर जे हुआ, तिण किया सरणा एहजी ।मु०२॥ संसार माहें जांह जीवसु, ताह सीम सरणां चारजी ॥ गणि समयसुन्दर इम भणे, पामीस पुण्य प्रभावजी ।मु०३|| ॥ इतिश्री चार शरणां सम्पूर्णम् ॥ ॥ अथ आलोयण स्तवन । . लाख चौरासी जोव खमावीए, मन घरी परम विवेकजी । मिच्छामि दुक्कडं दीजिये, गुरु वचन प्रतिबुझोजी ॥ लाख० ॥१॥ सात लाख भु दग तेऊ बाऊ, दस चवद वनना भैदजी। षट वीगल सुर तीर नारकी, चार चार चऊ नर भेदो जी ॥ लाख० ॥२॥ मुझ वर नहीं छे कोई सु, सहु साथे मैत्री भाव जी। गणि समयसुन्दर इम भणे पामीस पुन्य प्रभाव जी ॥ लाख० ॥३॥ ॥ इतिश्री आलोयण स्तवन सम्पूर्णम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य पद ॥ अथ आलोयण स्तवन ॥ पाप अठारे जोव परिहरो, अरिहंत सिद्धनी साखेजी । आलोय पाप छुटिये, भगवंत इण परे भाखेजी ॥ पाप० ॥१॥ आश्रव कषाय दोय बंधवा वली, कलह अभ्याख्यानजी । रति अरति पइसुण निद्रा, माया मोह, मिथ्यातजी || पाप० ॥२॥ मन वच कायाए जे किया, मिच्छामि दुक्कडं तेहजी । गणि समयसुन्दर इम भणें, जैन धर्म नो मर्म एहजी ॥ पाप० ॥३॥ ॥ इतिश्री आलोयण स्तवन सम्पूर्णम् ॥ 1:00:1 ॥ अथ वंराग्य पद || धन धन तेह दिन मुझ कदी होसे, हुं पालीस संजम सूधोजी । पूरब ॠषी पंथ चालसु, गुरु वचने प्रतिबुझोजी ॥ धन० ||१|| अन्त पंत भिक्षा गऊचरी, रण वगडा में संचरसु जी । समता भाव शत्रु मित्र सुं. संवेग सूधो घरसंजी ॥ धन० ॥२॥ संसारना संकट थकी हुँ छूटीस जिनवचने संभारजी । गणि समयसुन्दर इम भणें, हुं पामीस भवनो पारजी ॥ धन० ॥३॥ ॥ इति श्री वैराग्य पदं सम्पूर्णम् ॥ Jain Educationa International ॥ अथ श्री आलोयण स्तवन ॥ (देशी च उपईनी ) आदीश्वर पहिलो अरिहंत, भय भंजण सामी भगवंत । युगला घरम निवारण हार, मन वंछित दोलत दातार ॥ १ ॥ चौरासी लख जोनि रह For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आलोयण स्तवन मझार, कीधा पाप अनंती वार। ते जिनवर तुं जाणे सही, तो पिण आलोउ मुख कही ॥२॥ पूरव पाप तणे परकार, पाम्यो नीच कुले अव. तार । काज अकाज किया जेतला, भव भवनां दाखं तेतला ॥ ३ ॥ जलघर थलचर पंखी जीव, मार्या में पाईतां रीव । रात दिवस आहेड़े रम्यो, मृग मारेवा वन में भम्यो ॥४॥ रिण में हाथ गृही हथियार, सुभटा रा कोघा संहार । विण अपराधे घाल्या घाव, पिण पापी न कियो पछताव ॥ ५॥ पुर पाटण परजाल्या गाम । बनदव दीघा ठामो ठाम । भील भवे कीघा बहु पाप, सघला जाणे तुं माय बाप ॥ ६ ॥ पेट भरेवा पातक कीयो, हणता जीव घणु हरखियो। हिंसा दोष विचार्यो नहीं । धवलो तेतो जाण्यो दही ॥ ७ ॥ हंस मोर सारस ने चास, रोज हिरण वलि पाड्या पास । वारी करी हाथी झालिया, इण विधि पातक बहुला किया ॥८॥ माकड़ लूँ तावड़ नाखिया, बोछु पकड़ी ने राखीया। मकोड़ा माख्या घीवेल, बिल में ऊनो पाणी रेल ॥ ६ ॥ माखी ईली ने अलसिया, कीड़ी गादहीया गौमिया। सीप कातरा वली चूडेल, वरसाले नाख्या पगवेल ॥ १० ॥ मंजारी राखी घर जाण, ऊदर मरता न धरी काण । कुत्ता पाली मोटा किया, असती पोषण न विचारिया ॥ ११ ॥ ॥ ढाल॥ कपूर हुने अति ऊजलोरे । एदेशी ।। खांडण पीसण राधणेरे, सोवण जीमण ठाम । पडिकमणे जल उपरे, रे,देहरासर हित कामरे । जिनवर साँभल एह अरदास (ए आंकणि.) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आलोयण स्तवन ॥ १२ ।। आठे ठामे चन्द्रु आरे, बांध्या नहीरे लिगार । शक्ति छतां धन खर्चतारे, आण्यो लोभ अपाररे ।। जि० ॥ १३ ॥ कीधी चौरी पारको रे, पाडी घाड अपार । परनी थापण आलवी रे, न धर्यो पाप लिगार रे ॥ जि० ॥ १५ ॥ हासे भय क्रोध करी रे, बोल्या मृषावाद । परना गुण देखी करी रे, आण्यो मन विषवाद रे॥ जि० ॥ १५ सारो दिन राते रह्यो रे, परनारी ने संग । साते कुविसन सेवियारे, पापी ने परसंगरे ॥ जि० ॥ १६ ॥ पांचेइन्द्री मोकली रे, मूकि जिण तिण ठाम । भोले पिण राख्यों नहीं रे, हियडे जिनवर नामरे ॥ जि० ॥ १७॥ व्रत लेइ भांज्यां वली रे न धरी गुरुनी काण। समकितशुद्ध न राखियो रे, चित्त न धरी जिनवाणरे ॥ जि० ॥ १८ ॥ अभक्ष अथाणां मद भख्यारे, रात्रिभोजन कीध। कन्द मूल टाल्यां नहीं रे, अणगल पाणी पीथ रे ॥ जि० ॥१६॥ मधु मांखण ने मांस नो रे, टालो न कर्यो कोइ । जीभ सवादे जीव ने रे, लागा पातिक सोइ रे ॥ जि० ॥२०॥ माले पंखी मारिया रे, इडा फोड्या कोड। ते दूषण लागा घणारे, आलोवू कर जोड़ रे ॥ जि० ॥२१।। बाल बिछोहो मात ने रे, पाम्यो कर्म विशेष। गाय न मेली वाछडी रे, पाम्यापातक देख रे ॥ जि० ॥२२॥ ॥ ढाल २॥ ___ सीण सीखण चेलणा ॥ ए देशी ॥ गाम मुकाते मेलिया, अकरा कर कीध । लोभ करी जन मारिया,कुडा लज दीघ ।।२३।। अवधारो प्रभु विनती मुझ तारो संसार ॥ ए आंकणी॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ distralia श्री आलोयण स्तवन परम दयाल कृपा करो, मति राखो विचार ॥०॥२४॥ मोटा रुख छेदापिया, कीधा आरम्भ । हाट हवेली कराविया, थाप्या मोटा थंभ। अ० ॥२५॥ रांगण पास मंडाविया, निवाह अनेक । घाणी करावी अतिघणी, रख्यो न विवेक । अ० ॥ २६ ॥ निंदा करता पारको, दिन रात गमाया। भोला माणस भोलव्या, करी कूडी माया ॥ अ० ॥२७॥ लोह राछ बेच्या घणा, न करी काई जयणा । पाहुकार पडाविया, दीघा नहीं देणां ।। अ० ॥२८। करसण कुआ बावड़ी, वलि सुड ने दाग। पाप करी पोतो भर्यो, धरतो मद माण ॥ अ० २६ ॥ कुड़ा माप कराविया कीधा कुडा तोल । घीने तेल भेला किया, देखी बहु मोल ॥ अ० ॥ ३० चाडी करतां पर तणी, जमवारो हार्यो। खाधी लांच जिहां तिहां, मन मूल न वार्यो । अ० ॥ ३१॥ आपणपौ वखाणियो, निर्गुण तज लाज। मात-पिता मान्या नहीं, करता निज काज ॥ अ० ॥३२॥ देव अने गुरु धर्मनी, न करी कांइ आण। धरम ठाम पातिक कियो, न धरी जिन आण ॥ अ० ॥३३॥ सात क्षेत्रो धन खरचतां, कीधी कृपणाई । आप सवारथ राचते, केइ बात बणाई ॥ अ० ॥३४॥ सरवर द्रह जल सोसिया लाख वाणिज कीधा । दंत केस रस विणजता, लख पातिक लीधा ॥ ० ॥३५॥ साजो साबू ने गुली, बलि सोमल खार। कुविणज करतां किम हुवे, स्वामी छूटक वार ॥ अ० ॥३६॥ टंकण लूण मोलाविया, आगर में जाय । लिहाला लेई बेचतां, किम जयणा थाय । अ० ॥३७॥ पुन्य ठाम आवी करी, विकथा परमाद। धर्म लेश सुण्यो नहीं, कीयो मोटो वाद ।। ॥ अ० ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आलोयण स्तवन ॥ ढाल३ ॥ इम अनरथ दंड लगाया रे, पिण थारे सरणे नाया। सुलिया धानन लोधारे, पीसण जोया विण दीधारे ॥३६॥ काचा फल तोडी साधारे, पर जीव न जाणी. बाधारे। विसया स्वादे मातोरे, में काल न जाण्यो जातोरे ॥ ४० ॥ संयम लेई नवि पाल्योरे, पोतानो जनम विटाल्योरे। इमि दुषण लागारे, तप करने केइ भांगारे ॥४१॥ लोभे करी पाप उपायारे, तप संयम मूल गमायारे। जिण जिणसु माया मडीरे, धर्म सेती में मति छंडीरे ॥४२॥ गुरु पुस्तक विनय न कोधोरे, तिण कारज को नवि सिद्धोरे। लोभे करी चित्त लपटाणोरे, मांखी मधु जेम मराणोरे ॥ ४३ ॥ पातिक कर परिग्रह संच्योरे, वाते कर जन मन बच्योरे । ते अनरथ मूल न जाण्योरे, मन कुमति कदाग्रह ताण्योरे ॥४४॥ जिन मारग मूल न जाण्योरे, जतने करी बांध्यो ताण्योरे चेलोरे मोहे हडियोरे, तिण पाप अघोरे पडियोरे ।। ४५ ॥ विचरंता गौचरी काजेरे, के दोष कह्या जिनराजेरे। ते दूसण न टले कोइ रे, दिन रात पडंतर ईरे ॥४६॥ मणि मोहरा औषधि मंत्ररे, जडी ज्योतिष पारद तन्त्ररे । न रंजी बहु धन मेल्यारे, जुआरी जुअट खेल्यारे ॥४ा चंचल इन्द्रि वि दमियारे, इम एले नरभव गमियारे । उपशम रस कोई न काव्योरे, तः दरशण हिवे पछताव्योरे ॥४८॥ अपणो मत गाढो पोख्योरे, कोमट करी सोख्योरे। किरिया मैं मूल न पाली रे, आलस श्री आतमा की रे ॥ ४६ ॥ तप वेला ताक्यो ओलो रे, लम करी न सकुहुँ भोलो वलि सूत्र सिद्धान्त न भणिया रे,, दूषण टाल्या के मिशिया रे all Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आलोयण स्तवन कारज विण परघर जाई रे, बैठो परसंग पराई रे। मुनिवर ने परघर वरर्यो रे, मन माहीं ते न विचार्यो रे ॥५१॥ इम पातिक जाणी दाख्या रे, 'छाना में कोई न राख्या रे । कहेंतां जे चिन्ता नावे रे, जे जीव तुमे वे भावे रे । ५२ ।। तु त्रिभुवन तारण मिलियों रे, सघलांरो संशय लियो रे। मुझ आज मनोरथ सीधो रे, मैं जन्म कृतारथ कीयो रे ॥ ५३॥ ॥ कलश॥ इम आदि जिनवर सदा सुखकर सेवतां संकट टले। करजोड़ करतां वले वीनति सकल मन वांछित फले ।। 'जिनराज' जगगुरु 'मान' सीसे, 'कमलहरषे' हित भणी । अरदास एहवी करी सुपरे सफल भव अपणो गिणी ॥५४॥ ॥ अथ भक्ति मार्ग नों कंटक ॥ राग सोरठ-ताल-लावणी चादर जीणीरास जीणो-ए देशी ॥ या डाकण दूरे भांगी, जिन गुण मां लय लागी ॥ माया० ॥ संत समागम करीने, हुँतो थयो वैरागीरे । भव वृद्धिनी कारण माया, समझी मनथी त्यागी ॥ माया० ॥१॥ अनन्त कालथी साथे रहिने, दुःख आपेच नागीरे । सतवचन थी दुःख करजाणी, कीधी मैंतो आधी । माया० २॥ अंशाने भव वनर्मा भमता, · थयो मोहनरागी रे। शिवपद कार सरलपणुछे, जोयु हवे में जागी॥माया० ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति रहितो ने उपालंभ ॥ अथ भक्ति रहितोने उपालंभ ।। राग झिंझोटी-ताल पंजाबी ठेको जिन मुख से नाम न समर्यो, तिन मुख में तेरे धूल परीरे ॥ जिन ॥ धिक् तेरो जनम जीवित धिक् तेरो धिक् मानुष की देह घरीरे। जीवित तात मुवो नहीं तेरो, क्यों जनम्यों तु पाप करीरे ॥ जिन० ॥१॥ प्रभु नाम बिन रसना केसी, करो इनकी टुकड़ा टुकड़ी रे। जिन नेत्रन से नाथ न निरखत तिन नेत्रन में लुणभरी रे ॥ जिन० ॥ २॥ रतन पदारथ जनम मानखो, आवत नहीं सो फेर फरीरे। अब तेरो दाव बन्यो है मूरख, करना होय सो ले ने करीरे ॥ जिन ॥३॥ हाथ पसार कीयो नहीं सुकृत, तीरथ सन्मुख दृग न भरीरे। 'खोम' कहे तु भूलो आयो, तेरी खाली खेप परीरे ॥ जिन० ॥४॥ ॥ अथ बारह भावना ॥ आत्मा को वैराग्य वासित बनाने के लिये एकांत स्थान में बैठकर अपने मन में नीचे लिखी १२ भावना चिन्तन करना चाहिए। १-अनित्य भावना "पिता, माता, पुत्र, स्त्री, घर, ऋद्धि तथा अपना शरीर, धन, बन आदि सब पदार्थ" जो कि देखने में आते हैं । ये सब अनित्य हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति मार्ग नो कन्टक जल के परपोटे के माफिक देखते ही देखते नाश को प्राप्त होते हैं, ऐसा जानकर अनित्य वस्तु पर से राग ( मोह ) हटाना और नित्य वस्तु पर राग करना याने नित्य वस्तु ग्रहण करना जिनेश्वर भगवान का बताया हुआ धर्म तथा अपनी आत्मा का ज्ञान दर्शनीय हैं और वह हमेशा नित्य है इसलिये धर्म करने के ऊपर राग करना, कि जिससे अपना कल्याण हो ॥१॥ २-अशरण भावना संसार में जितने भी जीव हैं कोई किसी का शरणागत नहीं है। माता, पिता, कुटुम्ब, परिवार कोई किसी का नहीं है क्योंकि आयुष्य पूरी करके जीव जैसे कर्म उपार्जन करता है, वैसी गति को पाता है वहाँ अपने किये हुए कर्म उक्ष्य होने पर अकेला ही भोगता है उस जगह कोई बचाता नहीं वास्ते हे जीव ! शरणागत कौन और और कैसे हो सकता है ? शरणागत तो जिनेश्वर भगवान् का बताया हुआ धर्म ही है कि जो भली प्रकार पाले ( आराधन करे ) तो दुर्गति में जाने नहीं देवे इस लिये मन वचन और काया से धर्म की आराधना की जाय तो अपना कल्याण हो सकता है ।।२॥ ३-संसार भावना एकान्त में बैठकर ऐसा विचार करना चाहिये कि हे जीव ! संसा तो असार है, इसमें कुछ सार नहीं है सब स्वार्थ के सगे हैं इसमें अपन स्वार्थ जब तक सिद्ध हाता रहेगा, तब तक स्नेह रक्खेंगे और जब स्वा न होगा, तो मित्र भी शत्रु हो जावेंगे ऐसा जानकर संसार से उदासी) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह भावना भाव रखना, पाप से पीछे हटना, कोई भी काम सोचकर करना, अगर सोच विचार कर करेगा, तो उसके भव थोड़े ( कम ) होवेंगे, ऐसा उत्तम जीव का लक्षण है इसलिए व्यापार करती वक्त भी विचार करना चाहिये जो करने योग्य हो उसे करना, खराब व्यापार नहीं करना, ताकि थोड़े ही भव में मोक्ष जा सकेगा ॥३॥ ४-एकत्व भावना एकान्त में बैठकर इस तरह विचार करना कि, अरे जीव ! तू अकेला आया है और अकेला हो जावेगा सुख दुःख तू अकेला ही भोगेगा, क्योंकि जो अकेला नर्क में जाता है तो मोक्ष में भी अकेला ही जाता है और तिथंच में जावे तो भी अकेला ही जाता है इसलिए जो तू पाप कर्म करता है, खराब काम करता है, रात दिन कुछ गिनता नहीं, सो ऐसा नहीं करना, क्योंकि तेरा किया हुबा तू ही भुगतेगा, वहां कोई भी बचाने को नहीं आवेगा। ऐसा जानकर पापमय व्यापार छोड़ देना, धर्म कार्य ज्यादा करना ऐसा करने से सुख और शांति प्राप्त होगी ॥४॥ ५-अन्यत्व भावना __ अरे जीव ! कुटुम्ब परिवार तो रास्ते चलने वालों का मेला (तमाशा) है । जिस प्रकार मेले में चारों दिशा के लोग इकट्ठे हो जाते हैं और मेला विखर जाने पर वहां कोई नहीं ठहरता। इसी प्रकार संसार में भी आयुष्य पूर्ण होने पर जीव चारों गति में जाता है ऐसा संसार असार है तो भी तू विचारता नहीं और बहुत ही मोह जाल में फंसा नाता है उसके उपर राग करना नहीं ऐसा समझकर धर्म क्रिया करना ऐसा करने से इस भव में सुख और पर भव में कल्याण होगा ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . बारह भावना ६ अशुचि भावना रे जीव ! यह काया अशुची ( अशुद्धि ) से भरी हैं, मल, मूत्र, लोही, हाड और मांस से भरी है, ऊपर चर्म से लपेटी है नसों की जाल से बंधी है पुरुषों के नौ द्वार और स्त्री के ग्यारह द्वार तू नजरों से देखता है ऐसा जानकर संसार में लिपटना नहीं इस पर राग नहीं करना, सिर्फ धर्म के ही ऊपर राग करना कि जिससे अपना कल्याण हो ॥ ६॥ ७ आसव भावना संसारी जीव क्रोध, मान, माया, लोभ मिथ्याज्ञान आदि से नये नये कर्म बांधता है, इत्यादि विचार करना 'आसूत्र. भावना' कहाती है आसव भावना से भावित आत्मा आसव को रोकने के लिये समर्थ होता है। ८ संवर भावना कर्म बंध के कारणभूत मिथ्याज्ञान आदि को रोकने के उपाय सम्यक्ज्ञान आदि हैं। इत्यादि विचार करना ‘संवर भावना — कही जाती है, संवर भावना वाला जीव संवर में तत्पर हो सकता है ॥८॥ हनिर्जरा भावना - आत्म प्रदेशों के साथ लगे हुए प्राचीन कर्मों को बाह्य और अभ्यंतर तप द्वारा दूर करना, तप जप ध्यानादि से उन पूर्वकृत कर्मों के विपाकोदय को पैदा ही न होने देना, इस प्रकार के प्रबल पुरुषार्थ को 'निर्जरा' कहते हैं । निर्जरा दो प्रकार की होती है, सकाम और अकाम, समझकर तप आदि के जरिये कर्म का क्षय करना 'सकाम'। बिना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह भावना समझे या पराधीनपने भूख प्यास आदि दुखों के वेग को सहन करने से जो कर्म निर्जरे जाते हैं भोगे जाते हैं क्षय हो जाते हैं अर्थात् आत्मा से बिछड़ जाते हैं उसे "अकाम” कहते हैं। ऐसे चिंतन को 'निर्जरा भावना' कहते हैं । इस प्रकार से चिंतन करता हुआ जोव कर्मों के नाश करने में समर्थ होता है। १० लोक स्वरूप भावना कमर पर दोनों हाथों को रख कर और पैरों को फलाकर खड़े हुए पुरुष की आकृति के समान यह लोक है, जिस में धर्मास्तिकायादि छहों द्रव्य भरे पड़े हैं अधोलोक-नरक के पाथड़ों तथा आंतरों का स्वरूप, मध्यलोक-मनुष्यलोक, ऊर्ध्वलोक-बारह देवलोक, नव वेयक, पांव अनुतर विमान, मोक्ष स्थान इत्यादि विश्वमंडल की अनादि रचना का विचार करना 'लोक भावना' कहलाती है। इस प्रकार के चिंतन से इस जीवके तत्वज्ञान की निर्मलता होती है। ११ बोधिबीज भावना. इस अनादि संसार में नरकादि चारों गतियों में अनन्तकाल से परिभूमण करते हुए इस जीवको सब सांसारिक वस्तु प्रायः अनेक वार प्राप्त हो चुकी है, परंतु मिथ्यादर्शन आदि से नष्टबुद्धि वाले ज्ञानावरण दर्शनावरण मोह और अंतराय के उदय से पराभव को प्राप्त हुए इस जीवको सम्यग्दर्शन आदि विशुद्धि निर्मल बोधि श्री वीतराग देव के धर्म को श्रद्धा-धर्म की प्राप्ति होना दुर्लभ एवं बड़ी मुश्किल है, इस प्रकार के विचार को 'बोधिदुर्लभ' भावना कहते हैं। बोधिदुर्लभ भावना के चिन्तन से जीव बोधिको प्राप्त करके प्रमादी नहीं होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह भावना १२ धर्म भावना. अहो ! परमषि अरिहंत भगवंतने संसार समुद्र से पार उतारने को नावके समान, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति द्वारा पंचमहाव्रत, दश प्रकार का यतिधर्म आदि, मुक्ति को प्राप्त करानेवाला कैसा उत्तम धर्म का वर्णन किया है। इत्यादि विचारना 'धर्मभावना' कहलाती है। इस प्रकार चिंतन से यह जीव धर्ममार्ग से गिरता नहीं है और धर्म के अनुष्ठान में सावधान होता है। १३ मित्र भावना. जगत के जीवों पर दया का चिंतन करना, सब जीवों को अपने मित्र के समान समझना, कोई के साथ दुश्मनी नहीं रखना ऐसा चिंतन करना कि सब जीव सुखी हों, कर्मक्षय करके मोक्ष में जावो, उनके ऊपर दया लाकर अच्छी शिक्षा देना, धर्म सिखाना, धर्म मार्ग बताना, धर्म का अभ्यास करना, ऐसा जान सब जीवों पर दया का चिंतन करना, हित का उपदेश देना, इस प्रकार जीव दूसरे जीव को साता उत्पन्न करे तो खुद का कल्याण हो। १४ करुणा भावना. किसी दुःखी जीव को देखकर दया लाना, अपने पुण्य के प्रमाण से उसके दुःख का नाश करना, मरता हुआ देखकर बचाना, अपने से हो सके वहां तक उपकार करना, धर्म में मन स्थिर करना, दीन, दुःखी, बिचारों को ऊंचे बढाना, धर्म का काम परिश्रम पूर्वक करना। परोपकार का लाभ बहुत है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह भावना १५ प्रमोद भावना. गुणी जीव को देखकर प्रसन्न होना, उसको धर्म का उपदेश देना, धर्म का अभ्यास कराना, धर्मी जीव को देखकर उसका अति आदर करना, उसके गुण का चिंतन करना, नमस्कार करके पैरों पड़ना, गुणी की भक्ति करना, अपनी शक्ति के अनुसार सहायता करना कष्ट को मिटाना, ऐसा करने से उसको सुख होता है, अपनी शक्ति के अनुसार दान करना, शक्ति को नहीं छिपाना, क्योंकि परभव जाने में वह साथ में संबल है, खूब उपकार करना। १६ मध्यस्थ भावना. कोई जीव पापी हो, पाप के काम करता हो, अधर्म करता हो, नीच कर्म करता हो, बुरे व्यापार करता हो, चुगली वगैरः करता हो उसको सिखावण देना, कहना माने तो कहकर पाप से छुड़ाना, यदि कषाय उत्पन्न होतो नहीं कहना, मौन ही रहना, कोई पर राग-द्वष नहीं रखना, अपने ऐसा चिंतन करना कि यह बिचारा भारी कर्मी जीव है, जिसको जैसी गति में जाना होगा उसको वैसी ही बुद्धि उत्पन्न होगी, ऐसा जानकर अपने मध्यस्थ परिणाम से रहना, खराब रोजगार छोड़ देना, बुरी वाणी नहीं बोलना, बुरे व्यसन ( दुर्व्यसन ) छोड़ना, बुरे शब्द नहीं बोलना, खराब चलन छोड़ कर अच्छे चलन चलना, इसके वास्ते धर्म कथा, सिद्धान्त, धर्म मार्ग व्याख्यान आदि हमेशा सुनना। ॥ इति श्री भावना सम्पूर्णम् ॥ १६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदमावती आराधना ॥ अथ पदमावती आराधना प्रारंभः ॥ हवे राणी पदमावती, जीवराशी खमावे ॥ जाणपणुं जग ते भलु, . इण वेला आवे ॥ १ ॥ ते मुझ मिच्छामि दुक्कडं, अरिहंतनी साख ॥ . जे में जीव विराधिया, चउराशी लाख ॥ते० ॥ ३ ॥ सात लाख पृथिवीतणा, सात अप्काय ॥ सात लाख तेउकायना, साते वली वाय ॥ ते ॥ ३ ॥ दश प्रत्येक वनस्पति, चौदह साधारण ॥ बि ति चउरिंदी जीवना, बे बे लाख बिचार ॥ ते० ॥ ४ ॥ देवता तिर्यच नारकी, चार चार प्रकाशी ॥ चउदह लाख मनुष्यना, ए लाख चोराशी ॥ ते० ॥५॥ इण भवे परभवे सेवियां, जे पाप अढार ।। त्रिविध त्रिविध करी परिहरू, दुर्गतिनां दातारते॥६॥ हिंसा कीधी जीवनी, बोल्या मृषावाद ॥ दोष अदत्तादानना, मैथून : उन्माद ॥ ते० ॥७॥ परिग्रह मेल्यो कारिमो, कोधो क्रोध विशेष ॥ मान माया लोभ मैं कीया, वली राग ने द्वेष ।।ते० ॥८॥ कलह करी जीव दूहव्या, दीधां कूडां कलंक ॥ निंदा कीधी पारकी, रति अरति निशंक ॥ ते० ॥ ६ ॥ चाड़ी कीधी चोतरे, कीधो थापण मोसो।। कुगुरु कुदेव कुधर्मनो, भलो आण्यो भरोसो ॥ ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदमावती आराधना खाटकी ने भवे में कीया, जीव नानाविध घात ॥ चौडीमार भवे चरकलां, माऱ्या दिनरात ॥ ते० ॥ ११ ॥ काजी मुल्लाने भवे, पढी मंत्र कठोर ॥ जीव अनेक झम्भे कीया, कीधा पापं अघोर ॥ते०॥ १२ ॥ माछी ने भवे माछलां, जाल्यां जलवास ॥ धीवर भील कोली भवे, मृग पाडया पास ॥ ते० ॥ १३ ।। कोटवाल ने भवे में किया, आकरा करदंड ॥ बंदीवान मराविया, कोरड़ा छडी दंड ॥ ३० ॥ १४ ॥ परमाधामीने भवे, दीघां नारकी दुःख ॥ छेदन भेदन वेदना, ताडन अति तिख। ते० ॥ १५ ॥ कुंभारने भवे में किया, नीभाह पचाव्या ॥ तेली भवे तिल पीलिया, पापे पिंड भराव्या ॥ते० ॥ १६ ॥ हाली भवे हल खेडोयां, फाड्यां पृथ्वीनां पेट । सूड निदान घणां कीया, दीघां बलद चपेट ।ते०॥ १७ ॥ माली ने भवे रोपियां, नानाविध वृक्ष ॥ मूल पत्र फल फूलना, लागां पाप ते लक्ष ॥ ते० ॥ १८ ॥ अधोवाईयाने भवे, भर्या अधिका भार ॥ पोठी पूठे कीडा पड्या, दया नाणी लगार ॥ ते० ॥ १६ ॥ छीपा ने भवे छेतर्या, कीधा रंगण पास ॥ अग्नि आरंभ कीधाघणां, धातुवाद अभ्यास ॥ ते० ॥ २० ॥ शूरपणे रण जुझतां, मार्या माणस वृन्द ॥ मदिरा मांस माखण भख्या, खाधां मूलने कंद ॥ते०॥२१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदमावती आराधना खाण खणावी धातुनी, पाणी उल्ल च्यां ॥ आरंभ कीधा अतिघणा, पोते पापज संच्यां ॥ ते ॥ २२॥ कर्म अगार किया वली, दरमें दव दीधां ॥ सम खाधा वीतरागना, कूडा कोसज कीधा ।। ते० ।। २३ ॥ बिल्लीभवे उदर लिया, गिरोला हत्यारी ।। मूढ गमार तणे भवे, मैं जूं लीख मारी ॥ ते० ॥ २४ ॥ भाड जा तणे भवे, एकेन्द्रिय जीव ।। ज्वारि चणा गेहं शेकिया, पाडता रीव ॥ ते० ॥ २५ ॥ खांडण पीसण गारना, आरंभ अनेक ॥ रांधण इंधण अग्निनां, कीधा पाप उदेक ।। ते० ॥ २६ ॥ विकथा चार कीधी वली, सेव्या पांच प्रमाद ॥ इष्ट वियोग पाड्या किया, रुदन विषवाद ।।ते० ।। २७ ।। साधु अने श्रावक तणां, व्रत लही ने भांग्यां । मूल अने उत्तरतणां, मुझ दूषण लाग्यां ॥ ते० ॥ २८ ॥ साप वीछी सिंह चीतरा, सकरा ने समली ॥ हिंसक जीव तणे भवे, हिंसा कीधी सबली ॥ ते० ॥ २६ ॥ सूवावडी दूषण घणां, वली गर्भ गलाव्या । जीवाणी ढोल्यां घणां, शील ब्रत भंजाव्या । ते० ॥३०॥ भव अनंत भमतां थकां, कीधा देह संबंध ॥ त्रिविध त्रिविध करी वोसिरू, तिणशुप्रतिबंधाते०॥३१॥ भव अनंत भमतां थकां, कीधा परिग्रह संबंध ॥ त्रिविध त्रिविध करी वोसिरू, तिणशुप्रतिबंधातेगा३२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री क्षमाछत्रीसी भव अनंत भमतां थकां, कीधा कुटूंब संबंध ॥ त्रिविध त्रिविध करी वोसिरू, तिणशु प्रतिबंधाते०॥३३॥ इणि परे इहभव परभवे, कीधा पाप अखत्र ।। त्रिविध त्रिविध करी वोसिरू, करू जन्म पवित्रााते॥३४॥ एणि विधि ए आराधना, भावे करशे जेह ॥ समयसुन्दर कहे पापथी, वली छूटशे तेह ॥ ते० ॥ ३५ ॥ राग वैराड़ी जे सुणे, एह त्रीजी ढाल । समयसुन्दर कहे पापथी, छूटे ततकाल ॥ ते ॥ ३६ ॥ ॥ इति श्री पदमावती आराधना सम्पूर्णम् ।। ॥ अथ श्री क्षमाछत्रीसी प्रारंभ ॥ आदर जीव क्षमागुण आदर, म करिश राग ने द्वेषजी ॥ समताये शिव सुख पामीजे, क्रोधे कुगति विशेष जी ॥ आ० ॥१॥ समता संजम सार सुणीजे, कल्पसूत्रनी साख जी। क्रोध पूर्व कोडि चारित्र बाले, भगवंत इणी परे भाखजी||आ०॥२॥ कुण कुण जीव तर्या उपसमथी, सांभल तुं दृष्टांत जी ॥ कुण कुण जीव भम्या भवमाहे, क्रोध तणे विरतंत जी ॥आ०॥३॥ सोमल ससरे शीश प्रजाल्युं, बांधी माटीनी पाल जी ॥ गजसुवूमाल क्षमा मन धरतो मगति गयो ततकाल जी आ०॥४॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमाछत्तीसी कुलवालुओ साधु कहातो, कीधो क्रोध अपार जी ॥ कोणिक नी गणिका वश पड़ियो, रडवडियो संसार जी ॥आ०॥५॥ सोवनकार करी अति वेदन, वाघ्रशुं वींटियुं शीश जी ॥ मेतारज ऋषि मुक्ति पोहोतो, उपशम एह जगीश जी ॥आ०॥६॥ कुरुड़ बुरुड़ बे साधु कहाता, रह्या कुणाला खाल जी ॥ क्रोध करी ते कुगति पहोता, जनम गमायो आलजी आ०॥७॥ कर्म खपावी मुगते पहोता, खंधकसूरिना शिष्य जी । पालक पापीये घाणी पील्या, नाणी मनमां रीशजी आ०॥६॥ अध्यकारी नारी अचुकी, त्रोड्या पीयुशु नेह जी ॥ बब्बरकुल सह्यां दुःख बहुलां, क्रोध तणा फल एहजी ||आ०॥॥ वाघणे सर्व शरीर विलुयु, ततक्षण छोड्यां प्राण जी ॥ साधु सूकोशल शिवसूख पाम्यां, एह क्षमा गुण जाणजोआ०॥१०॥ कुण चण्डाल कहीजे बिहुमें, निरति नहीं कहे देवजी ॥ ऋषि चंडाल कहीजे वड़तो, टालो वेढनी टेवजी ॥ आ० ॥११॥ सातमी नरक गयो ते ब्रह्मदत्त, काढी ब्राह्मण आँखजी ॥ क्रोध तणां फल कडुआं जाणी, राग द्वेषद्यो नांखजी ।।आ०॥१२॥ खंधक ऋषिनी खाल उतारी, सह्यो परिसह जेणजी ॥ गरभवासना दुःखथी छूटयो, सबल क्षमा गुण तेणजी ॥आ०॥१३॥ क्रोध करी खंधक आचारिज, हुओ अग्निकुमार जी ॥ दंडक नृपनो देश प्रजाल्यो, भमशे भवह मझारजी ।। आ० ॥१४॥ चंडरौद्र आचारिज चलतां, मस्तक दीध प्रहारजो ॥ ... क्षमा करंतां केवल पाम्यो, नव दीक्षित अणगारजी ॥आ० ॥१५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री क्षमाछत्रोसी ४७ पांच वार ऋषिने संताप्यो, आणी मनमां द्वषजी ॥ पंच भव सीम दह्यो नंद नाविक, क्रोध तणां फल देखजीआ०॥१६॥ सागरचन्दनु शीश प्रजाली, निशि नभसेन नरिंद जी॥ समता भाव धरी सुरलोके, पहोतो परमानंद जी ॥आ० ॥१७॥ चन्दना गुरुणीये घणु निभ्रछी, घिग धिग तुझ अवतार जी ॥ मृगावती केवलसिरि पामी, एह क्षमा अधिकार जो आ०॥१८॥ सांब प्रद्युम्न कुवर संताप्यो, कृष्ण द्वैपायन साहजी ॥ क्रोध करी तपनु फल हार्यो, कीधो द्वारिका दाह जीआ०॥१६॥ भरत मारण मूठी उपाड़ी, बाहूबल बलवंत जी ॥ उपसम रस मनमांहे आणी, संयम ले मतिमंतजी आ०॥२०॥ काउसग्गमां चडियो अतिक्रोधे, प्रश्नचन्द्र ऋषिराय जो ।। सातमी नरक तणां दल मेल्या, कडुआं तेण कषायजीआ०॥२१॥ आहारमाहे क्रोधे ऋषि थुक्यो, आण्यो अमृत भावजी ॥ कूरगडुये केवल पाम्यु, क्षमातणे परभाव जी आ० ॥२२॥ पार्श्वनाथ ने उपसर्ग कीधा, कमठ भवांतर धीठजी ॥ नरक तिर्यच तणां दुःख लावां, क्रोध तणां फल दीठजी।।आ०॥२३॥ क्षमावंत दमदंत मुनीश्वर, वनमा रह्यो काउसग्ग जी ॥ कौरव कटक हण्यो ईटाले, प्रोड्या कर्मना वर्गजीआ०॥२४॥ सय्यापालक काने तरुओ, नान्यो क्रोध उदीरजी ॥ बेहु काने खीला ठोकाणा, नवि छूटा महावीरजीआ०॥२५॥ चार हत्या नो कारक हुँतो, दृढ़प्रहार अतिरेकजी ॥ क्षमाकरी ने मुक्त पहोतो, उपसर्ग सह्यां अनेकजी||आ०॥२६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री क्षमाछत्रीसी पहुरमाहे उपजतो हार्यो, क्रोधे केवलनाणजी ॥ देखो श्रीदमसार मुनीशर, सूत्र गुण्यो उठाणजी आ०॥२७॥ सिंह गुफावासी ऋषि कीघो, थुलिभद्र ऊपर कोपजी ॥ वेश्या वचन गयो नैपाले, कीधो संजम लोपजीआ०॥२८॥ चन्द्रवतंसक काउसग्ग रहियो, क्षमा तणो भंडारजी ॥ दासी तेल भर्यो निशि दीवो, सुरपदवी लहे सारजीआ०॥२६॥ इम अनेक तर्या त्रिभुवन में, क्षमागुणे भवि जीवजी ॥ क्रोध करी कुगते ते पहोता, पाडता मुख रीवजी आ० ॥३०॥ विष हालाहल कहीये विरुओ, ते मारे एक वारजी ॥ पण कषाय अनंती वेला, आपे मरण अपारजीआ०॥३१॥ क्रोध करंता तप जप कीधा, न पड़े कांई ठामजी ॥ आप तपे परने संतापे, क्रोधशु केहो कामजी ॥आ० ॥३२॥ क्षमा करंता खरच न लागे. भांगे क्रोड़ कलेश जी ॥ अरिहन्त देव आराधक थाये, व्यापे सुजस प्रदेशजी आ०॥३३॥ नगरमांहे नागोर नगीनो, जिहाँ जिनवर प्रासादजी ॥ श्रावक लोक वसे अति सुखिया, धर्मतणे परसादजी ॥आ०॥३४॥ क्षमाछत्रीसी खांते कीधी, आतम पर उपगारजी ॥ सांभलतां श्रावक पण समज्या, उपशम धर्यो अपारजीआ०३५॥ जुगप्रधान जिणचन्दसूरीशर, सकलचन्द तसु शिष्यजी ॥ समयसुन्दर तसु शिष्य भणे इम, चतुर्विध संघ जगीशजीआ०॥३६॥ इति श्री क्षमछत्रीसी सम्पूर्ण । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आलोयण छतीसी ॥ अथ श्री आलोयणा छतीसी ॥ ते मुझे मिछामि दुकडं - यह —-राग पाप आलोय तु आपणा, सुद्ध आगम साखे । आलोयां पाप छूटिये, इम भगवंत भाखे ॥ पा० ॥१॥ साल हीयाथी काढीजइ, जिम कोधा तेम । दुःख देखिस नहींतर घणा, रूपी लखमण जेम ॥ प० ॥२॥ वृद्ध गीतार्थ गुरु मिले, आतमा सुद्ध कीध । तौ आलोयण लीजोये नहींतर स्युं लीध ॥ पा० ३ ॥ ओछउ अधिकौ द्य जिके, परकाशइ पाप । लेणहार छूटे नहीं, साम्हउ लागे संताप || पा० ४ ॥ कीधा तिम को कहा नहीं, जीभ लड़थड़इ झूठ । कांटो भांगड आंगुली, खोत्रीजे अंगुठ ॥ पा० ५ ॥ गडर प्रवाह तूं मुंकिजे, दुसमकाल दुरंत । आतम साख आलोयजे, छेद ग्रन्थ कहन्त ॥ पा० ६ ॥ कर्म निकाचित जे किया, ते तो भोगवियां छूट । सिथिल बन्ध बंध्या जिके, विन भोगव्यां त्रुट ||पा०७॥ पृथ्वी पाणी अग्निना, वायु वनस्पति जीव । तेहनो आरंभ तुं करइ, स्वाद लीध सदीव || पा०८ ॥ आंवउ बोलउ बोबडो, मृगापुत्र ज्यु देख | अंग उपंगइ तेहन, मारे लोहनी मेख || पा० ६ ॥ बोलइ नहीं ते बापडउ, पिण पीडा होय । तेहवी तीर्थंकर कहइ, आचारांगइ जोय ॥ पा० १० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ୪୧ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आलोयण छतीसी आदउ मुलउ आदिदे, कंद मूल विचित्र । अनंत जीव सूई अग्र में, पन्नवणा सूत्र ॥ पा० ११ ॥ जीभ. स्वाद माऱ्या जिके, ते मारिस्यै तुज्झ । भव मांहें भमता थकां, थासे जिहां तिहां झूझ ॥पा० १२॥ झूठ बोल्या जीभडी, दीधा कूड कलंक । गलजीभी थास्ये गले, हुइस्ये मुहडो त्रिबंक पा०॥१३।। परधन चोऱ्या लूँटिया, पाड्यो ध्रसकउ पेट . भूखउ भमइ संसार में, निरधन थकउ नेट ॥पा०॥१४ परस्त्री नई तूं भोगवी, तुछ स्वाद तूं लेस । पिण नरकै ताती पृतलो, आलिंगन देस ।।पा० १५।। परिग्रह मेल्यउ अति घणउ, इच्छा जेम आकाश । काज सर्यो नहीं तेहनउ, उत्तराध्येने प्रकाश पा० १६॥ घाणी घरटी उखली, जीव जंतु पीडेस। खामिवू नहींतर नरक में, घाणी मांही पीलेस पा०१७॥ छाना अकारिज करि पछइ, गर्भ नाख्या पाडि । परमाहम्मी तेहनइ, नितु नाखिस्यै फाडि ॥पा०१८ ॥ गोधानां नाक बींधीया, खसी कीधा बलद्द । आरंभो उठाडिया, राति ऊचे शबद्द ।। पा० १६ ।। वाला वाढ्या टांकतां, मांकण खाटला कूट। विरेच लेइ क्रिमी पाडिया, गलणउ गयउ छूट ।पा० २०॥ राग द्वेष खाम्या नहीं, जां जीव्या तां सीम। - अनंतानुबंधी ते थया, कहि करेस तूकीम ॥पा० २१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आलोयण छतीसी ५१ तड़तड़ते नांख्या तावडे, सुल्या धान जिवार । तड़फडिने जीव ते मूआ, दया न रही लगार पा०२२।। अणगल पाणी लूगडा, धोया नदी तलाव । ___ जीव संहार कीयउ घणउ, साबू फरस प्रभाव ॥ पा० २३॥ वयरी विष दे मारिया, गलफाँसी दोध । ते तुझनै पिण मारिस्य, मूकिस्य वयर लीध पा०२४॥ कोउ अंगिठा तें करि, थाप्यो सिगडी कुंड। रातइ दीवउ राखियउ, पापई भर्यो पिंड । पा ०२५॥ मायथी विछोह्या वाछड़ा, नीरी नहीं चारी। उन्हाले तिरसै मूआ, कीधी नहीं ज सारो ॥पा० २६॥ मा बापने मान्या नहीं, सेठसु असंतोष। __ धर्मनो उपगार नहीं धर्यो, पावे किम सुखपोष ।।पा०२६॥ आंधउ टूटउ पांगुलौ, कोढीयो जार चोर । मरि जा फीटिनि बोल तू, कह्या वचन कठोर ॥पा०२८।। मद्यनइं मांस अभक्ष जिके, खाधा हुस्ये हूँस । मिच्छामि दुक्कड देइने, पछै लेजे सुस ॥ पा०. २६ ॥ सामाइक पोसा कीया, लोधा साधुना वेस। ____ पण संवेग धर्यो नहीं, कहि किम तु तरेस पा० ३० ॥ सूत्र ने प्रकरण समझता, कह्यो विपरीत कोइ । जण जण मत ते जूजूइ, सुगतां भ्रम होइ ॥ पा० ३१ ॥ वचन जिके वीतरागना, ते तउ सहि साच । भगवती सूत्र जोजो सहु, वीरजीरा वाच ॥ पा० ३२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ श्री आलोयण छतीसी कर्मादान पनरह कह्या, वलि पाप अढार । खिण खिण ते सहु खामिज्यो, संभारि संभार ॥पा०३३ ।। इणभवि पर भवि एहवा, कीधा हुवइ पाप । नाम संभारीने खामिज्यो, करज्यो पछताप ॥ पा०३४ ॥ खरच कोई लागस्ये नहीं, देहनै नहीं दुख। पण मन वयराग आणिज्यो, सही पामिस सुख ॥पा०३५।। संवत सोल अठाणुये, अहमदपुर मांहि । 'समयसुन्दर' कहै मई करी, आलोयण उछाहि ॥ पा० ३६ ।। इति श्री आलोयणा छतीसो सम्पूर्ण । अथ सर्व पापादिक आलोयणा स्तवन बेकर जोड़ी वीनकुंजी, सुणि स्वामी सुविदीत । ___ कूड़ कपट मूकी करीजी, बात कहूँ आप बीत ॥ १ ।। कृपानाथ मुझ वीनती अवधार ॥टेक ।। तु समरथ त्रिभुवन धणीजी, मुझने दुत्तर तार ॥ कृ० २ ॥ भवसायर भमतां थकां जी, दीठा दुःख अनन्त । भाग संयोगे भेटियाजी, भयभंजण भगवंत ॥ कृ० ३ ॥ जे दुःख भांजे आपणोजी, तेहने कहीये दुःख । पर दुख भंजण तु सुण्योजी, सेवक ने द्यो सुख ॥ कृ० ४ ।। आलोयण लीधां पखेजी, जीव रुलै संसार । रुपी लक्ष्मणा महासतीजी, एह सुणो अधिकार ॥ कृ० ५ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व पापादिक आलोयणा स्तवन दुषमकाले दोहिलो जी, सुधो गुरु संयोग । परमारथ प्रीछे नहीं जी, गडरप्रवाही लोग ॥ कृ० ६ ॥ तिण तुझ आगल आपणा जी, पाप आलोऊ आज। माय बाप आगल बोलता जी, बालक केही लाज ॥कृ०७॥ जिनधर्म २ सह कहेजी, थाप अपनी बात । समाचारी जुई जुईजी, संसय पडे मिथ्यात ॥ कृ० ८ ।। जाण अजाण पणे करीजी, बोल्यो उत्सूत्र बोल । रतने काग उडावतां जी, हार्यों जनम निटोल ॥ कृ०६॥ भगवंत भाष्योते किहांजी, किहां मुझ करणी एह। गज पाखर खर किम सहैजी, सबल विमासण तेह ॥कृ०१०।। आप परुप्यु आकरोजी, जाणे लोक महत । पिण न कर परमादियोजी, मासाहस दृष्टांत।। कृ० ११ ॥ काल अनंते मैं लह्याजी, तीन रतन श्रीकार । पिण परमादे पाडियाजी, किहां जइ करु पुकार ||कृ० १२।। जाणु उत्कृष्टी करुजी, उद्यत करु विहार । धीरज जीव धरे नहीं जी, पोते बहु संसार ।। कृ० १३ ।। सहज पड्यो मुझ आकरोजी, न गमें रुडी बात। परनिंदा करता थकांजी, जाये दिन में रात ॥ कृ० १४॥ किरिया करतां दोहिलीजी, आलस आणे जीव . धर्म पखे धंधे पड्योजी, नरके करस्यै रीव ॥ कृ० १५ ॥ अगहुँता गुण को कहेजी, तो हरखं निश दीश । को हित सीख भली कहैजी, तो मन आणुरीश कृ०१६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. सर्व पापादिक आलोयणा स्तवन वाद भणी विद्या भणोजी, पर रंजण उपदेश । मन संवेग धर्यो नहीं जी, किम संसार तरेश ॥ कृ० १७ ॥ सूत्र सिद्धांत बखांणतांजी, सुणतां करम विपाक । खिण एक मन मांहिं ऊपजी, मुझ मरकट बैराग ॥१८॥ त्रिविव त्रिविध करी ऊचरुंजी, भगवंत तुम्ह हजूर । बार बार भांनँ वलीजी, छूटकवारो दूर ॥ कृ० १६ ॥ आप काज सुख राचतांजी, कीधा आरंभ कोड़। जयणा न करी जीवनीजी, देव दया पर छोड़ ।। कृ० २० ॥ वचन दोष व्यापक कह्याजी, दाख्या अनरथ दंड। कूड कपट बहु केलवीजी, व्रत कीधां शत खंड । कृ० २१ ॥ अण दीधो लीजै त्रिणोजी, तोही अदत्तादान। . ते दूषण लागा घणाजी, गिणतां नावै ग्यान ॥ कृ०.२२ ॥ चंचल जीव रहै नहींजी, राचै रमणी रूप। काम विटंबण सी कहुँजी, ते तू जाने स्वरूप ॥कृ०२३॥ माया ममता में पड्योजी, कीधो अधिको लोभ । परिग्रह मेल्यो कारमोजी, न चढी संयम शोभ । कृ० २४ ॥ लागा मुझ ने लालचैजी, रात्रीभोजन दोष। मैं मन मूक्यो माहरोजी, न धर्यो धरम संतोष ॥ कृ०२५ ॥ इणभव परभव दूहव्याजी, जीव चौराशी लाख । ते मुझ मिच्छामि दुक्कडंजी, भगवंत तोरी साख ॥१०२६॥ करमादान पनरै कह्याजी, प्रगट अढारै पाप । जे मैं कीधा ते सहजी, बगश २ माई बाप ॥ कृ० २७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व पापादिक आलोयणा स्तवन मुझ आधार छै एतलोजी, सद्दहणा छे शुद्ध । जिनधर्म मीठो जगत में जी, जिम साकर ने दूध ॥ कृ०२८ ॥ रिषभदेव तू राजीयोजी, सेत्रु जगिरि सिणगार । पाप आलोय आपणाजी, कर प्रभु मोरी सार ॥ कृ० २६ ॥ मर्म एह जिन धर्मनोजी, पाप आलोयां जाय । मनसुं मिच्छामि दुक्कडंजी, देता दुरित पलाय ॥ कृ० ३० ॥ तू गति तू मति तू धणीजी, तू' साहिब तू देव | आण धरु शिर ताहरीजी, भव २ ताहरी सेव ॥ कृ० ३१ ॥ कलश - इम चढीय सेत्रुज चरण भेट्या, नाभिनंदन जिन तणा । कर जोड़ी आदि जिणंद आगे, पाप आलोया आपणा || श्रीपूज्य जिनचंदसूरि सद्गुरु, प्रथम शिष्यं सुजश घणे । गणि सकलचंद सुशिष्य, वाचक, समय सुन्दर गणि भणे ॥ ३२ ॥ ॥ इति आलोयणा गर्भित शत्रुंजय स्तवनम् ॥ ॥ अथ श्री वैकुंठ पंथ ॥ वैकुंठ पंथ बीहामणो, दोहिलो छे घाट | आपणनो तिहां कोइ नहीं, जे मार्ग वहे रे उतावलो, उडे झीणेरी देखाड़े वाट ॥ १ ॥ खेह | कोइ कोइ पडखे नहीं, छांडी जाय सनेह ॥ मार्ग० २ ॥ एक चाल्या बीजा चालशे, त्रीजा चालणहार । रात दिवस वहे वाटडी, पडखे नहीं लगार ॥ मार्ग० ३ ॥ Jain Educationa International ५५ For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैकुंठ पंथ प्राणी ने परियाणु आवियु, न गणे वार कुवार । भद्रा भरणी योगिनी, जो होय सामो काल ॥ मार्ग० ४ ॥ जम रूपे बिहामणो, वाटे दीये रे मार। कृत कमाइ पूछशे, जीवनो किरतार ॥ मार्ग० ५ ॥ लोभे वाह्यो जीवडो, करतो बहु पाप। ___अंतरजामी आगले, केम करीश जबाब ॥ मार्ग० ६ ॥ जे विण घडो सरतो नहीं, जोवन प्राग आधार । ते विण वरस वही गयां, शुद्ध नहीं समाचार ॥ मार्ग०७॥ आव्यो तुं जीव एकलो, जातां नहीं कोई साथ।। पुण्य बिना तुं प्राणिया, घसतो जाईश हाथ ॥ मार्ग० ८ ॥ मग कोरी माहे पेशीये, तोहि न मेले मोत । । चेतणहारा चेतजो, जाशे गोफण गोला सोत॥ मार्ग० ६ ॥ छत्रपति भूप केइ गया, सिद्ध साधक लाख । क्रोड़ गमे करम आवट्या, अमर कोइ जीव दाख मार्ग० १०॥ आपण देखतां जग गयो, आपने पण जाणा । ऋद्धि मेली रहेशे नहीं, मोहोटा राय ने राणा ॥मार्ग० ११॥ दहाडे पहोते आपणे, सहु कोई जाशे । धर्म विना तुमे प्राणिया, पडशो नरकावासे ।। मार्ग० १२ ।। संबल होय तो खाइये, नहीं तो मरिये भूख । आपणनो तिहां कोइ नहीं, जेहने कहिये दुःख ॥मार्ग० १३ ।। आगल हाट न वाणीया, न करे कोइ उधार । गांठे होय तो खाइये, नहीं कोइ देअणहार ॥ मार्ग० १४ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ श्री वैकुंठ पंथ निश्चल रहेQ छे नहीं, म करो मोड़ा मोड़ । परस्त्री प्रीत न मांडिये, एतो महोटी खोड़ ॥ मार्ग० १५॥ वस्तु परायी मत लीयो, म करो तांत पराई। धर्म विना जग जीवने, होशे अंते खुआरी॥ मार्ग० १६ ॥ कूड कपट तुमे मत करो, जीव राखजो ठाम । __ जीवदया प्रतिपालजो, जो होये वैकुंठ काम ॥ मार्ग० १७ ॥ मोहोटा मंदिर मालीयां, घर पण घणेरी आथ । हीरा माणेक अतिघणा, पण कांइ नावे साथ ॥ मार्ग० १८ ॥ कोडी गमे कुकर्म कियां, केता कहुँ तुम आगल । लेखे किणिपरे पोहोचीये, प्रभुजोशुं कागल ॥ मार्ग० १६ ॥ आगल वेतरणी वहे, तिहां कोइ न तारे । धर्मी तरी पार पामशे, पापो जाशे पायाले ॥ मार्ग० २० ॥ दीठे मार्ग चालिये, न भराये कूडो साख । .. काल काया पडी जायशे, मसाणे उड़शे राख ॥ मार्ग० २१॥ जतन करतां जायशे, ‘उड़ी जाशे सास । माटी ते माटो थायशे, उपर उगशे घास ॥ मार्ग० २२ ॥ माय बाप ए केहनां, केहनो परिवार । पुत्र पौत्रादिक केहनां, केहनी घरनार ॥ मार्ग० २३ ॥ कोइ म करशो गारवो, धन जोबन केरो । अंत उगर्यो कोइ नहीं, आपणथी भलेरो ॥ मार्ग० २४ ॥ महारु महारु करतो थको, पड्यो माया ने मोह। लोचन बे मीचाणडां, (तव) धणी अणेराइ होय ॥मार्ग० २५।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ श्री वैकुंठ पंथ जे जिहां ते तिहां रह्य, चाल्यो एकलो आप । साथे संगते बे थयां, एक पुन्य ने पाप ॥ मार्ग० २६ ॥ सुगुरु सुसाधु वंदिये, मंत्र महोटो नवकार । देव अरिहंतने पूजीये, जेम तरीये संसार ॥ मार्ग० २७ ॥ शालिभद्र सुख भोगव्यां, पात्र तणे अधिकार । खीर खांड घृत वहोरावीयां, पोहोता मुक्ति मझार |मार्ग० २८।। तस घर घोड़ा हाथीया, राजा दीये बहुमान । - दान दया करी दीजिये, भावे साधु ने मान ॥ मार्ग० २६ ।। धर्मे पुत्रज रुअड़ा, धर्मे रूडी नार। धर्मे लक्ष्मी पामीयो, धर्म जय जयकार ॥ मार्ग० ३० ॥ नव नंद मत्ता मेली गया, डुंगर केरा पाणा। समुद्रमां थया शंखला, राजा नंदनां नाणां ॥ मार्ग० ३१ ॥ पुंजी मेली मरि जायशे, खावे खरचवे खोटा। ते कडाह ऊपर थाइ, अवतर्या मणिधर महोटा ॥ मार्ग० ३२ ॥ माल मेली करी एकठा, खरचे नवि खाय। . लेइ भंडारे भूमिमां, तिहां कोइ काढी जाय ॥ मार्ग० ३३ ॥ मूंजी लक्ष्मी मेलशे, केहने पाणी न पाय। . धर्म कार्य आवे नहीं, ते धूल धाणी थाय ॥ मार्ग० ३४ ॥ जीवतां दान जे आपशे, पोते जमणे हाथ । श्री भगवान एम भाखियु, सहु आवशे साथ ॥ मार्ग० ३५ ॥ दया करी जे आपशे, उलटे अन्ननु दान । अडसठ तीर्थ इहां अछे, वली गंगास्नान ।। मार्ग० ३६ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैकुंठ पंथ जोगी जंगम घणा थायशे, दुःखिया इण संसार।। खीचडी खाये खांतशु, साचो जिन धर्म सार ॥ मार्ग ३७ ॥ खांडानी धारे चालवु, सुणजो ए सार । परस्त्री मात करी जाणवी, लोभ न करवो लगार मार्ग०३८॥ कनक कामिनी जेणे परिहरी, ते तो कर्म थी छूटा। भीखारी मंगे घणां, बीजा खोचड़ खूटा ।। मार्ग० ३६ ॥ पाथरणे धरती भली, ओढण भलु आकाश । शणगारे शीयल पहेरवु, तेहने मुक्ति नो वास ॥ मार्ग ४. ।। उपवास आंबील नित करे, नित अरिहंत ध्यान । काम क्रोव लोभ परिहरे, तेहने मुक्ति निधान ॥ मार्ग ४१ ॥ मनुष्य जन्म पामी करी, जे करशे धर्म। सुख सघलां ए संपजे, छूटे सर्वे कर्म । मार्ग० ४२ ॥ धर्मे धन्नज पामीये, धर्म सवि सुख थाय। अरिहंत नाम आराधिये, पाप परले जाय ॥ मार्ग० ४३ ॥ खाट पथरणे सुई रहो, खाओ नित्य खाणां । एक अरिहंत नाम संभारतां, क्यां बेसे तुझ नाणां मार्ग०४४। मनसा वाचा कायथी, लीजे भगवंत नाम । सुख स्वर्गनां संपजे, सीझे वंछित काम ॥ मार्ग० ४५ ॥ खातां पीतां खरचतां हइड़ा म करे खलखंच ।. काया माया कारमी, जोवन दहाड़ा पंच ॥ मार्ग० ४६ ॥ केही सुचंगी बाढीयो, केही सुचंगी नार । केते माटी होई रही, केते भये अंगार ॥ मार्ग० ४७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैकुण्ठ पंथ हंसराजा जब उड़ीयो, तब कोइ न करे सार। सगा कुटुंब सहु एम भणे, वही काढो बार ॥ मार्ग० ४८ ॥ मित्र पुत्रादिक तिहां लगे, तिहां लगे स्नेह भरपूर । हंसराजा जब चालिया, तब थया सहु दूर ॥ मार्ग० ४६ ॥ जेवो जणियों तेवो काढियो, नवि मांगी भाग। ____ आगल खोखर हांडली, मांहे अवबलती आग ॥ मार्ग० ५० ॥ पतितपावन प्रभुजी तमे, सुणो हो दीनानाथ ।। संसार सागर मांही बूड़तां, देजो तुमे हाथ ॥ मार्ग० ५१॥ सांभलो स्वामी शामला, मोरी अरदास। - हुं मांगु प्रभु एटलु, देजो वैकुण्ठ बास ॥ मार्ग० ५२ ॥ अहंकार चित न आणीये, केहने गाल न दीजे। - काम क्रोध लोभ मारिये, तो अमर फल लीजे मार्ग ५३॥ करत कमाइ जोडिये, केहने दोष न दीजे । विषनां फल जो वाविये, तो अमृत फल केम लीजे॥मार्ग० ५४॥ छती ऋद्धि खरचे नहि, ते पग मूरख महोटा। ठालो आव्यो भूलो जायशे, आगल पडशे सोटा |मार्ग० ५५।। चौराशी लख जीव जोनिमां, फिरिया वार अनंत । मुनि भीम भणे अरिहंत जपो, जिम पामो भव अंत |मार्ग० ५६॥ संक्त शोल नव्वाणुये, बीज ने बुधवार । ___ आसो मासे गाईया, छीकारी नगरी मझार ॥मार्ग० ५७॥ भीम भणे सहु सांभलो, मत संचो दाम।। जिमणे हाथे वावरो, तो सहि आवशे काम ॥मार्ग ५८॥ भीम भणे सह सांभलो, नवि कीजे पाप। ओछो अधिको जे मैं कह्यो, ते तमे करजो माफ मार्ग० ५६॥ + Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार ॥ समाधि-विचार ॥ * दोहा * परमानन्द परमप्रभु, प्रणमु पास जिणन्द । ___ वंदु वीर आदे सहु, चउबीसे जिगचंद ॥ १ ॥ इंद्रभूति आदे नमु, गणधर मुनि परिवार । जिन वाणी हैडे घरी, गुणवन्त गुरु नमुसार ॥ २ ॥ आ संसार असारमां, भमता काल अनन्त । असमाधै करी आतमा, किम ही न पाम्यो अंत ॥ ३ ॥ चउगतिमां भमतां थकां, दुःख अनन्तानन्त । भोगवीयां एणे जीवडे, ते जाणे भगवंत ॥ ४ ॥ कोई अपूरव पुन्यथी, पाम्यो नर अवतार । उत्तम कुल उत्पन्न थयो, सामग्री लही सार ॥ ५ ॥ जिनवाणी श्रवणे सुणी, प्रणमी ते शुभ भाव । तिणथी अशुभ टल्या घणां, कांइक लही प्रस्ताव ॥ ६ ॥ विरवा भव दुःख भाखीयां, सुखतो सहज समाध । तेह उपाधि मिटे हुए, विषय कषाय अगाध ॥ ७ ॥ विषय कषाय टल्या थकी, होय समाधि सार । तेण कारण विवरी कडं, मरण समाधि विचार ॥ ८ ॥ मरण समाधि वरणवु, ते निसुणो भवि सार । अंत समाधि आदरे, तस लक्षण चित्त धार ॥ ६ ॥ भागवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार जे परिणाम कषायना, ते उपसम जब थाय । तेह सरूप समाधिनुं, ए छे परम उपाय ॥ १० ॥ सम्यग्दृष्टि जीवने, तेहनो सहज स्वभाव । __ मरण समाधि वंछे सदा, थिर करी आतम भाव ॥११॥ अरुचि भई असमाधि की, सहज समाधि सुँ प्रीत । दिन दिन तेहनी चाहना, वरते एहीज रीत ॥ १२ ॥ काल अनादि अभ्यास थी, परिणति विषय कषाय । तेहनी शांति जब हुए, तेह समाधि कहाय ॥ १३ ॥ अवसर निकट मरण तणो, जब जाणे मतिवंत । तब विशेष साधन भणी, उलसित चित्त अत्यंत ॥१४॥ जैसे शार्दूल सिंह को, पुरुष कहे कोई जाय। सूते क्युं निर्भय हुई, खबर कहुं सुखदाय ॥ १५ ॥ शत्रु की फोजां घणी, आवे छे अति जोर। तुम घेरण के कारणे, करती अति घणो शोर ।। १६ ॥ कित्तेक तुम से दूर हैं, ते वैरी की फोज । गुफा थको निकसो तुरंत, करो संग्राम की मोज ॥१७॥ तुम आगे सब रंक है, शत्रु को परिवार। प्राक्रम दाखो आपलूं, तुम बल शक्ति अपार ।। १८ ॥ महंत पुरुष की रीत ए, शत्रु आवे जांही। तब ततखीण सन्मुख हुई, जोत लिये खिणमाही ॥१६॥ वचन सुणी ते पुरुष का, उठ्यो शार्दूल सिंह। निकस्यो बाहिर ततखिणे, मानें अकल अबीह ॥ २० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ bu. समाधि विचार गर्जारव करे एहवो, महा भयंकर घोर । मानु मास आषाड को, इन्द्र धडुक्यो जोर ॥ २१ ॥ शब्द सुणो केशरी तणो, शत्रुको समुदाय । हस्ति तुरंगम पायदल, त्रास लहे कंपाय ॥ २२ ।। शत्रु हृदयमा संक्रम्यो, सिंह तणो आकार । तेणे भयभीत थया सहु, डग ना भरे लगार ॥ २३ ॥ सिंह पराक्रम सहन कु, समरथ नहिं तिलमात्र । जीतण की आशा गई, शिथिल भयां सवि गात्र ॥ २४ ॥ सम्यग्दृष्टि सिंह छे, शत्रु मोहादिक आठ । - अष्ट कर्म की वर्गणा, ते सेनानो ठाठ ॥ २५॥ दुःखदायक ए सर्वदा, मरण समय सुविशेष । जोर करे अति जालमी, शुद्धि न रहे लवलेश ।। २६ ॥ करमों के अनुसार एम, जाणो समकितवंत ।। कायरता दूरे करे, धीरज धरे अति संत ॥ २७॥ समकितदृष्टि जीवकू, सदा स्वरूप को भास । " जड़ पुद्गल परिचय थकी, न्यारो सदा सुखवास ॥१८॥ निश्चे दृष्टि निहालतां, कर्म कलंक ना कोय । गुण अनन्त को पिंड ए, परमाणंद मय होय ॥ २६ ॥ अमूर्तिक चेतन द्रव्य ए, लखे आपकू आप । ज्ञान दशा प्रगट भई, मिट्यो भरम को ताप ॥ ३० ॥ आत्मज्ञान की मगनता, तिन में होय लयलीन । रंजत नहीं परद्रव्य में, निज गुण में होय पीन ॥ ३१ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार विनाशिक पुद्गल दशा, खिण भंगुर सभाव । मैं अविनाशी अनन्त हैं, शुद्ध सदा थिर भाव ॥ ३२ ॥ निज सरूप जाणे इसो, समकित दृष्टि जीव । मरण तणो भय नहीं मने, साध्य सदा छे शीव ॥ ३३ ॥ ऐसे ज्ञानी पुरुष के, मरण निकट जब होय । तब विचार अंतर गमे, करे ते लखिये सोय ॥ ३४ ॥ थिरता चित्त में लाय के, भावना भावे एम । ६४ अथिर संसार ए कारमो, इणसु मुज नहीं प्रेम ॥ ३५ ॥ एह शरीर शिथिल हुआ, शक्ति हुई सब खीण | मरण नजीक अब जाणिये, तेणे नहिं होणां दीन ॥ ३६ ॥ सावधान सब बात में हुई करु आतम काज । " काल कृतांतकुं जीत के, वेगे लहुं शिवराज ॥ ३७ ॥ रण भंभा श्रवणे सुणी, सुभट वीर जे होय । ते ततखिण रण में चडे, शत्रु जीते सोय ॥ ३८ ॥ एम विचार हइडे घरी, मूकी सब जंजाल । प्रथम कुटुंब परिवार कुं, समझावे सुरसाल ॥ ३६ ॥ सुणो कुटुम्ब परिवार सहु, तुमकु कहुं विचित्र । एह शरीर पुद्गल तणो, कैसो भयो चरित्र ॥ ४० ॥ देखत ही उत्पन्न भया, देखत विलय ते होय । तिण कारण ए शरीर का, ममत न करणा कोय ।। ४१ ।। एह संसार असार में, भमतां वार अनन्त नव नव भव धारण कर्या, शरीर अनन्तानन्त ॥ ४२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार जन्म मरण दोय साथ छे, छिण २ मरण ते होय। मोह विकल ए जीवने, मालम ना पडे कोय ॥ ४३ ॥ मैं तो ज्ञानदृष्टि करु, जाणु सकल सरूप । पाडोशी मैं एहका, नहीं माहरु ए रूप ।। ४४ ।। मैं तो चेतन द्रव्य हुँ, चिदानंद मुज रूप । . ए तो पुद्गल पिंड है, भमर जाल अंधकूप ।। ४५ ॥ सहण पड़ण विद्धसणो, एह पुद्गल को धर्म। थिती पाके खिण नवी रहे, जाणो एहोज मर्म ॥ ४६ ॥ अनन्त परमाणु मिली करी, भया शरीर परजाय । _वरणादिक बहु विध मिल्या, काले विखरी जाय ॥ ४७ ॥ पुद्गल मोहित जीवकु. अनुपम भासे एह । पण जे तत्ववेदी होय, तिनकु नहीं कुछ नेह ॥ ४८ ॥ उपनी वस्तु कारमी, न रहे ते थिर वास । एम जाणी उत्तम जना, घरे, न पुद्गल आस ॥ ४६ ॥ मोह तजी समता भजी, जाणु वस्तु स्वरूप । पुद्गल राग न कीजिये, नवि पडिये भवकूप ॥ ५० ॥ वस्तु स्वभावे नीपजे, काले विणसी जाय । करता भोक्ता को नहीं, उपचारे कहेवाय ॥ ५१ ॥ तेह कारण एह शरीर सु, संबंध न माहरे कोय। मैं न्यारा एह थी सदा, ए पण न्यारा जोय ॥ ५२ ॥ एह जगत में प्राणिआ, भरमे भूल्या जेह। जाणी काया आपणी, ममत धरे अति तेह ॥ ५३ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार जब थिती एह शरीर को, काले पोंचे होय खीण । तब झूरे अति दुःख भरे; कर विलाप एम दीन ॥ ५४ ॥ हा हा पुत्र तु क्यां गयो, मूको ए सहु साथ। हा हा पति तुम क्यां गया, मुजकुमूको अनाथ ॥ ५५ ॥ हा पिता तुम किहां गया, अम कुण करशे सार । हा बंधव तुम किहां गया, शून्य तुम विण संसार ॥५६॥ हा ! माता तु किहां गई, अम घरनी रखवाल । हा बेनी तु किहां गई, रोवत मूकी बाल ॥ ५७ ॥ मोह विकल एम जीवड़ा, अज्ञाने करी अंध । ममतावश गणी माहरा, करे क्लेशना धंध ॥ ५८ ॥ इणविध शोक संताप करी, अतिशे क्लेश परिणाम । . करमबंध बहुविध करे, ना लहे खिण विशराम ।। ५६ ।। ज्ञानवंत उत्तम जना, उनका एह विचार । जगमां कोई किसी का नहीं, संजोगिक सहुधार ॥ ६० ॥ भवमा भमतां प्राणिआ, करे अनेक संबंध । रागद्वष परिणति थकी, बहुविध बांधे बंध ॥ ६१ ॥ वैर विरोध बहुविध करे, तिम प्रीत परस्पर होय । . संबंधे आवी मले, भव भव के बिच सोय ॥ ६२ ॥ बन के बीच एक तरु विषे, संध्या समय जब होय । दश दिशथी आवी मिले, पंखी अनेक ते जोय ॥ ६३ ॥ रात्रे तिहां वासो वसे, सवि पंखी समुदाय । प्रातःकाल उठी चले, दशे दिशे तेहु जाय ॥ ६४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार इण विध एह संसार में, सवि कुटुम्ब परिवार । संबंधे सहु आवी मिले, थिती पाके रहे न केवार ।। ६५ ॥ किसका बेटा बाप है, किसका मात ने भ्रात । किसका पति किसकी प्रिया, किसकी न्यात ने जात ॥६६॥ किसका मन्दिर मालीया, राज्य ऋद्धि परिवार । क्षीणविनासी ए सहु, एम निश्चे चित्तधार ॥ ६७ ॥ इंद्रजाल एम ए सहु, जेसो सुपन को राज । जैसी माया भूत की, तैसो सकल ए साथ ॥ ६८ ॥ मोह मदिराना पान थी, विकल भया जे जीव । तिनकु अति रमणिक लगे, मगन रहे सदैव ॥ ६६ ॥ मिथ्यामतिना जोर थी, नवि समझे चितमाह। क्रोड़ जतन करे बापड़ो, ए रहेवे को नांह ।। ७० ॥ एम जाणी त्रण लोक मां, जे पुद्गल पर्याय । तिनकी हुँ ममता तजु, धरु समता चितलाय ।। ७१ ।। एह शरीर नहीं माहरु, एतो पुद्गल खंध । हु तो चेतन द्रव्य छु', चिदानंद सुख कंद ॥ ७२ ॥ एह शरीर का नाश थी, मुझको नहीं कांइ खेद । - हु तो अविनाशी मदा, अविचल अकल अभेद ॥ ७३ ।। देखो मोह स्वभाव थी, प्रत्यक्ष झूठो जेह । अति ममता धरी चित्तमां, राखण चाहे तेह ॥ ७४ ।। पण ते राखो नवि रहे, चंचल जेह स्वभाव । - दुःखदायी ए भव विष, परभव अति दुःखदाय ।। ७५ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ समाधि विचार ऐसा स्वभाव जाणी करी, मुजकु कछु नहीं खेद | शरीर एह असार का, इणविध लहे सहु भेद ॥ ७६ ॥ गलो हुओ छार । पण मुजको नहीं प्यार ।। ७७ ।। मोह अंधार | चिदानंद सुखकार ॥ ७८ ॥ सडो पडो विध्वंस हो, जलो अथवा थिर थइने रहो, ज्ञानदृष्टि प्रगट भई, मिट गया ज्ञान सरूपी आतमा, निज सरूप निरधारके, मैं भया इनमें लीन । काल का भयमुचित नहीं, क्या कर सके ए दीन ॥ ७६ ॥ इनका बल पुद्गल विषे, मोपर चले न कांय । मैं सदा थिर शास्वता, अक्षय आतमराय ॥ ८० ॥ आत्मज्ञान विचारतां, प्रगट्यो सहज स्वभाव । अनुभव अमृत कुंड में, रमण करु लही वाव ॥ ८१ ॥ आत्म अनुभव ज्ञानमां, मगन भया अंतरंग | विकल्प सवि दूरे गया, निर्विकल्प रस रंग ॥ ८२ ॥ आतम सत्ता एकता, प्रगट्यां सहज स्वरूप । ते सुख त्रण जगमें नहीं, चिदानंद चिदरूप ॥ ८३ ॥ सहजानन्द सहज सुख, मगन रहुं निशदीश । पुद्गल परिचय त्याग के, मैं भया निज गुण ईश ॥ ८४ ॥ देखो महिमा एह को अद्भुत अगम अनूप । " तीन लोक की वस्तु का, भासे सकल सरूप ॥ ८५ ॥ ज्ञेय वस्तु जाणे सहु, ज्ञान गुणे करी तेह | आप रहे निज भाव में, नहीं विकल्प की रेह ॥ ८६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार ऐसा आतम रूपमें, मैं भया इणविध लीन । स्वाधीन ए सुख छोड़ के, वंछु न पर आधीन ॥ ८७ ॥ एम जाणी निज रूप में, रहुं सदा हुशियार। - बाधा पीड़ा नहीं कछु, आतम अनुभव सार ॥ ८८ ।। ज्ञान रसायण पाय के, मिट गई पुद्गल आश । अचल अखंड सुखमें रमु, पुरणानंद प्रकाश ।। ८६ ॥ भव उदधि महा भय करु, दुःख जल अगम अपार । मोह मूर्छित प्राणी को, सुख भासे अतिसार ॥ १० ॥ असंख्य प्रदेशी आतमा, निश्चे लोक प्रमाण । व्यवहारे देह मात्र छे, संकोच थकी मन आण ॥ ६१ ॥ सुख वीरज ज्ञानादि गुण, सर्वागे प्रतिपूर । जैसे लूण साकर डली, सर्वागे रस भूर ॥ १२ ॥ जैसे कंचुक त्याग थी, विणसत नाहीं भुजंग। देह त्याग थी जीव पण, तसे रहत अभंग ॥ १३ ॥ एम विवेक हृदये धरी, जाणी शास्वत रूप । थिर करी हुओ निज रूपमें, तजी विकल्प भ्रमकूप ॥६४|| सुखमय चेतन पिंड है, सुख में रहे सदैव । निर्मलता निज रूपकी, निरखे खिण २ जीव ॥ ५ ॥ निर्मल जेम आकाशकु, लगे न किण विध रंग। छेद भेद हुये नहीं, सदा रहे ते अभंग ।। ६२ ॥ तैसे चेतन द्रव्यमें, इनको कबहु न नाश । चेतन ज्ञानानंदमय, जड़, भावी आकाश ।। ६७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० समाधि विचार दर्पण निर्मल के विषे, सब वस्तु प्रतिभास। तिम निर्मल चेतन विषे, सब वस्तु प्रकाश ।। ६८ ॥ एण अवसर एम जाण के, में भया अति सावधान । पुद्गल ममता छांड के, धरु शुद्ध आतम ध्यान ॥ ६६ ॥ आतम ज्ञान की मगनता, एहीज साधन मूल । एम जाणी निज रूप में, करु रमण अनुकूल ॥ १०० ।। निर्मलता निज रूप की, किमही कही न जाय । तीन लोक का भाव सब, झलके जिनमें आय ॥ १०१ ।। ऐसा मेरा सहज रूप, जिनवाणी अनुसार । आतम ज्ञाने पाय के, अनुभव में एकतार ।। १०२ ॥ आतम अनुभव ज्ञान जे, तेहीज मोक्ष सरूप । ते छंडी पुद्गल दशा, कुण ग्रहे भवकूप ॥ १०३ ।। आतम अनुभव ज्ञान ते, दुविधा गई सब दूर । तब थिर थइ निज रूप की, महिमा कहुँ भरपूर ।। १०४ ।। शांत सुधारस कुंड ए, गुण रत्नों की खान । अनन्त ऋद्धि आवास ए. शिव मन्दिर सोपान ।। १०५ ।। परम देव पण एह छे, परम गुरु पण एह। । परम धर्म प्रकाश को, परम तत्व गुण गेह ॥ १०६ ।। ऐसो चेतन आपको, गुण अनन्त भंडार। अपनी महिमा विराजतो, सदा सरूप आधार ॥ १०७॥ चिदरुपी चिन्मय सदा, चिदानन्द भगवान । शिवशंकर स्वयंभू नमु, परम ब्रह्म विज्ञान ॥ १०८ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार एण विध आप सरूप की, लखी महिमा अतिसार । मगन भया निज रूपमें, सब पुद्गल परिहार ॥ १०६ ॥ तरंग अनेक । सरूप की टेक ॥ ११० ॥ तरंग | अपनी परिणति आदरी, निर्मल ज्ञान रमण करु निज रूप में, अब नहीं पुद्गल रंग ॥ १११ ॥ पुद्गल पिंड शरीर ए, मैं हुँ चेतन राय । मैं अविनाशी एह तो, क्षिण में विणसी जाय ॥ ११२ ॥ अन्य सभावे परिणमें, विणसंता नहीं वार । उदधि अनन्त गुणे भर्यो, ज्ञान मर्यादा मूके नहीं, निज ७१ तिणसुँ मुज ममता किसी, पाडोसी व्यवहार ॥ ११३ ॥ इण की थिती पूरी भई, रहेणे को नहीं आश । वरण रस गंध फरस सहु, गलन लगा चिहुं पास ॥ ११४ ॥ एह शरीर की ऊपरे, राग द्वेष मुज नांहि । राग द्वेष की परिणतें, भमिये चिहुं गति मांहि ॥ ११५ ।। राग द्वेष परिणाम थी, करम बंध बहु होय । परभव दुखदायक घणा, नरकादिक गति जोय ॥ ११६ ॥ मोहे मुच्छित प्राणी कुँ, राग द्वेष अति थाय । अहंकार मकार पण, तिण थी शुध बुध जाय ॥ ११७ ॥ महिमा मोह अज्ञान थी, विकल भया सवि जीव । पुद्गलिक वस्तु विषे, ममता धरें सदैव ॥ ११८ ॥ परमे निजपणु मान के, निविड़ ममता चित धार । विकल दशा वरते सदा, विकल्पनो नहीं पार ॥ ११६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार मैं मेरा ए भाव थी, फिर्यो अनंतो काल । .... जिनवाणी चित परिणमें, छुटे मोह जंजाल ॥ १२० ।। मोह विकल एह जीवकुँ, पुद्गल मोह अपार । पण इतनी समजे नहीं, इनमें कछु नहीं सार ।। १२१ ।। इच्छाथी नवी संपजे, कल्प विपत ना जाय। पण अज्ञानी जीवकुँ, विकल्प अतिशय थाय ॥ १२२ ॥ एम विकल्प करे घणा, ममता अंध अजाण । मैं तो जिन वचने करी, प्रथम थकी हुओ जाण ॥ १२३ ।। मैं शुद्धातम द्रव्य हुँ, ए सब पुद्गल भाव । सडन पडन विध्वंसणो, इसका एह स्वभाव ॥ १२४ ।। पुद्गल रचना कारमी, विणसंता नहीं वार । ___ एम जाणी ममता तजी, समता हुँ मुज प्यार ॥ १२५ ॥ जननी मोह अंधारकी, माया रजनी कूर। ___ भव दुःख की ए खाण है, इणसँ रहीए दूर ।। १२६ ।। एम जाणी निज रूप में, रहुं सदा सुखवास । और सब ए भवजाल है, इणसँ भया उदास ॥ १२७ ॥ एण अवसर कोइ आयके, मुजफु कहे विचार । काया तुम कछु नहीं, एह बात निरधार ॥ १२८ ।। पण एह शरीर निमित्त है, मनुष्य गति के मांह। _ शुद्ध उपयोग की साधना, एणसु बने उछांह ॥ १२६ ।। एह उपगार चित्त आण के, इनका रक्षण काज । उद्यम करना उचित है, एह शरीर के साज ॥ १३० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार इनमें टोटा नहीं कछु, एह केणे की वात । तिनसुं उत्तर अब कहुं, सुणो सज्जन भलीभाँत ॥ १३१ ॥ तुमने जो बातां कही, अम भी जाणुं सर्व । एह मनुष्य परजाय से, गुण बहु होते निगर्व ॥ १३२ ॥ शुद्ध उपयोग साधन बने, और ज्ञान अभ्यास | ज्ञान वैराग्य की वृद्धि को, एहि निमित्त है खास ॥१३३॥ इत्यादिक अनेक गुण, प्राप्ति इणथी होय । अन्य परजाये एहवा, गुण बहु दुर्लभ जोय ॥ १३४॥ पण एह विचार में, कहे को ए मर्म । एह शरीर रहो सुखे, जो रहे संजम धर्म ॥ १३५ ॥ अपना संजमादिक गुण, रखना एहीज सार । ते संयुक्त काया रहे, तिनमें कोन असार ।। १३६ ।। मोकु एह शरीर सुं वेर भावतो नाहीं । एम करतां जो नवी रहे, गुण रखना लेउ छांही ॥१३७॥ विधन रहित गुण राखवा, तिण कारण सुण मित्त । स्नेह शरीर को छांडिये, एह विचार पवित्त ॥ १३८ ॥ एह शरीर के कारणे, जो होय गुण का नाश । एह कदापी ना कीजिये, तुमकु कहुं शुभ भारा ॥१३६॥ एह संबंध के ऊपरे, सुणो सुगुण दृष्टान्त । जिथी तुम मन के विषे, गुण बहुमान होय संत ॥१४०॥ कोइ विदेशी वणिक सुत, फरतां भूतल मांही । रत्नद्वीप आवी चड्यो, नीरखी हरख्यो तांही ॥ १४१ ॥ Jain Educationa International ७३ For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ समाधि विचार जाण्यु रत्नद्वीप एह छे, रल तणो नहीं पार । करु व्यवसाय इहां कणे, मेलवू रतन अपार ॥ १४२ ।। तृण काष्टादिक मेलवी, कूटि करि मनोहार । तिण में ते वासो वसे, करे वणज व्यापार ॥ १४३ ॥ रतन कमावे अति घणां, कूटि में थापे तेह । एम करतां कई दिन गयां, एक दिन चिंता अछेह ॥१४४॥ कूटि पास अग्नि लगी, मन में चिते एम । बुझवुअग्नि उद्यम करी, कुटी रतन रहे जेम ।। १४५ ॥ किण विध अग्नि समी नहीं, तब ते करे विचार । गाफल रहेणां अब नहीं, तुरत हुआ हुशियार ॥ १४६ ॥ ए तरणा की अँपडी, अग्नि तणे संजोग । खीण में ए जलि जायगी, अब कहां इसका भोग ॥ १४७ ॥ रतन संभालं आपणां, एम चिती सवि रत्न । लेई निजपुर आवीओ, करतो बहु विध जत्न ॥ १४८ ॥ रतन विक्रीय तेणे पुरे, लक्ष्मी लही अपार । मंदिर महेल बनाविया, बाग बगीचा सार || १४६ ।। सुख विलसे सब जातका, किसी उणप नहीं तास । देवलोक परे मानतो, सदा प्रसन्न सुखवास ॥ १५० ।। भेद विज्ञानी पुरुष जो, एह शरीर के काज । दूषण कोइ सेवे नहीं, अतिचार भी त्याज ॥ १५१ ॥ आत्म गुण रक्षण भणी, दृढता धरे अपार । देहादिक मुर्छा तजी, सेवे शुद्ध व्यवहार ॥ १५२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार संजम गुण परभाव थी, भावी भाव संजोग । ____ महाविदेह क्षेत्रां विषे, जन्म होबे शुभ जोग ॥ १५३ ॥ जिहां सीमंधर स्वामीजी, आदे वीश जिणंद । त्रिभुवन नायक सोहता, निरखं तस मुखचंद ॥ १५४ ॥ केवलज्ञान दिवाकर, बहु केवली भगवान । ___ वली मुनिवर महा संजमी, शुद्ध चरण गुणवान ॥ १५५ ॥ एहवा उत्तम क्षेत्रमा, जो होय माहरो वास । तो प्रभु चरण कमल विषे, निशदिन करु निवास ॥१५६।। अत्ति भक्ति बहुमान थी, पूजी पद अरविंद । श्रवण करुं जिनवर गिरा, सावधान गत द्वद ॥ १५७ ।। समवसरण सुरवर रचे, रतन सिंहासन सार । बेठा प्रभु तस ऊपरे, चोत्रीश अतिशय धार ॥ १५८ ॥ वाणी गुण पांत्रीश करी, वरसै अमृत धार । ते निसुणी हृदये धरी, पामु भवजल पार ॥ १५६ ।। निविड़ कर्म महारोग जे, तिणकुँ फेडणहार । परम रसायन जिन गिरा, पान करु अति प्यार ।।१६०॥ क्षायक सकित शुद्धता, करवानो प्रारंभ । प्रभु चरण सुपसाय थी, सफल होवे सारंभ ॥ १६१ ।। एम अनेक प्रकार के, प्रशस्त भाव सुविचार । करके चित्त प्रसन्नता, आणंद लहुँ अपार ॥ १६२ ।। और अनेक प्रकार के, प्रश्न करु प्रभु पाय । उत्तर निसुणी तेहना, संशय सवि दुर जाय ॥ १६३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार निःसंदेह चित्त होय के, तत्वातत्व सरूप। भेद यथार्थ पायके, प्रगट करु निज रूप ।। १६४ ।। रागद्वेष दोय दोष ए, अष्ट करम जड़ एह । हेतु एह संसार का, तिणको करवो छेह ॥ १६५ ।। शीघ्रपणे जड मूलथी, रागद्वेष को नाश । करके श्रीजिनचंन्द्र को, निर शुद्ध विलाश ॥ १६६ ॥ परम दयाल आणंदमय केवल श्रीसंयुक्त । त्रिभुवनमें सूरज परें, मिथ्या तिमिर हरंत ॥ १६७ ॥ एहवा प्रभु' देख के, रोम रोम उलसंत । ___ वचन सुधारस श्रवणते, हृदय विवेक वर्धत ॥ १६८ ।। श्री जिन दरिशन जोगथी, वाणी गंग प्रवाह । तिण थी पातिक मल सवे, धोइस अति उछाह ॥ १६९।। पवित्र थई जिन देव के, पासे ले दीख । दुर्धर तप अंगीकरु, ग्रहण आसेवन शीख ॥ १७० ॥ चरण धरम परभावथी, होशे शुध उपयोग । शुद्धातम की रमणता, अद्भुत अनुभव जोग ॥ १७१ ॥ अनुभव अमृत पान में, आतम भये लयलीन । क्षपक श्रेणी के सनमुखे, चढ़ण प्रयाण ते कोन ॥ १७२ ॥ आरोहण करी श्रेणी कु, घाती करम को नाश । धनघाती छेदी करी, केवलज्ञान प्रकाश ॥ १७३ ॥ एक समय त्रणकाल के, सकल पदारथ जेह । जाणे देखे तत्वथी, सादि अनंत अछेह ॥ १७४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार एहि परम पद जाणीये, सो परमातम रूप । शास्वत पद थिर एह छे, फीरी नहीं भवजल कूप ॥१७५॥ अविचल लक्ष्मी को धणी, एह शरीर असार । तिनकी ममता किम करे, ज्ञानवंत निरधार ।। १७६ ॥ सम्यक्ष्टि आतमा, एण विध करी विचार । थिरता निज स्वभाव में, पर परिणति परिहार ॥ १७७ ॥ मुजॉ दोनुं पक्ष में, वरते आणंद भाय । जो कदी एह शरीर को, रहणो कांइक थाय ॥ १८ ॥ तो निज शुध उपयोग को, आरावन करु सार । तिनमें विघन दीसे नहीं, नहीं संक्लेश को चार ॥ १७६ ।। जो कदो थिति पूरण भई, होये शरीर को नाश । तो परलोक विषे करु, शुध उपयोग अभ्यास ॥ १८० ॥ मेरे शुद्ध उपयोग में, विघन न दीसे कोय । तो मेरे परिणाम में, हलचल कांहीं होय ॥ १८१ ॥ मेरे परिणाम के विषे, शुद्ध सरूप की चाह । अति आशक्त पणे रहे, निशदिन एहीज राह ॥ १८२ ॥ ए आशक्ति मिटाववा, ब्रह्मा विष्णु महेश। आदि कोई समरथ नहीं, तेणे करी भय नहीं लेश ॥१८३ इन्द्र धरणेन्द्र नरेन्द्रका, मुजकुं भय कछु नांहीं । या विध शुद्ध सरूपमें, मगन रहुं चित मांही ।। १८४ ॥ समरथ एक महाबली, मोह सुभट जग जाण । सवी संसारी जीवकुं, पटके चिहु गति खाण ॥ १८५ ।। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ समाधि विचार दुष्ट मोह चंडाल की, परिणत विषम विरूप। संजमधर मुनि श्रेणीगत, पटके भवजल कूप ।। १८६ ।। मोह करम महादुष्ट कु, प्रथम थकी पहिचांण । जिन वाणी महामोगरे, अतिशय कोध हेरान ॥ १८७ ॥ जरजरीभूत हुई गया, नाठा मुजसु दूर । अब नजीक आवे नहीं, दुरपे मुजसु भूर ॥ १८८ ॥ तेणे करी मैं नचिंत हुं, अब मुज भय नहीं कोय।। त्रणलोक प्राणी विषे, मित्र भाव मुज होय ।। १८६ ।। सुणो सज्जन परिवार तुम, सभालोक सुणो बात । मरणे का भय नहीं मुज, एह निश्चे अवदात ॥ १६० ॥ अवसर लही अब मैं भया, निर्भय सर्व प्रकार । आत्म साधन अब करु, निसंदेह निरधार ।। १६१ ॥ शुद्ध उपयोगी पुरुष कु, भासे मरण नजीक । तब जंजाल सब परिहरी, आप होवे निरभीक ।। १६२ ॥ एणी विध भाव विचार के, आणंद मय रहे सोय । - आकुलता किणविव नहीं, निराकुल थिर होय ॥ १६३ ॥ आकुलता भव बीज है, इणथी वधे संसार । _जाणी आकुलता तजे, ए उत्तम आचार ।। १९४ ।। संजम धर्म अंगोकरे, किरिया कष्ट अपार । तप जप बहु वरसां लगे, करी फल संच असार ॥ १६५ ॥ आकुलता परिणाम थी, खीण में होय सहु नाश । समकितवंत एम जाणीने, आकुलता तजे खास ॥ १६६ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार ७६ निराकुल थिर होय के, ज्ञानवंत गुण जाण । हित शिख हृदय धरी तजे, आकुलता दुख खाण ॥ १६७ ।। आकुलता कोई कारणे, करवी नहीं लगार । ए संसार दुःख कारणो, इणकु दुर निवार ।। १६८ निश्चे शुद्ध सरूपका, चिंतन वारंवार । निज सरूा विचारणा, करवी चित्त मझार ॥ १६६ ।। निज सरूप को देखवो, अवलोकन पण तास । शुद्ध सरूप विचारवो, अंतर अनुभव भास ॥२०० ॥ अति थिरता उपयोग की, शुद्ध सरूप के मांही। , करतां भव दुःख सवि टले, निर्मलता लहे तांही ॥ २०१ ।। जेम निर्मल निज चेतना, अमल अखंड अनूप । गुण अनंतनो पिंड एह, सहजानंद स्वरूप ॥ २०२ ।। एह उपयोगे वरततां, थिर भावे लयलीन । निर्विकल्प रस अनुभवे, निज गुणमां होय पीन ॥ २०३ ।। जब लगे शुद्ध सरूप मैं, बरते थिर उपयोग । . तब लगे आतम ज्ञानमां, रमण करण को जोग ॥ २०४ ॥ जब निज जोग चलित होवे, तब करे एह विचार । - ए संसार अनित्य छे. इणमें नहीं कछु सार ।। २०५ ॥ दुःख अनंत की खाण यह, जनम मरण भय जोर । विषम व्याधि पूरित सदा, भव सायर चिहुं ओर ॥२०६॥ ए सरूप संसार को, जाणी त्रिभुवन नाथ । राज ऋद्धि सब छोडके, चलवे शिवपुर साथ ॥ २०७ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार निश्चे दृष्टि निहालतां, चिदानंद चिदरूप । चेतन द्रव्य साधरमता, पुरणानंद सरूप ॥ २०८ ।। प्रगट सिद्धता जेहनी, आलंबन लही तास । शरण करु महापुरुष को, जेम होय विकलप नाश ॥२०६।। अथवा पंच परमेष्टि ए, परम शरण मुज एह । वली जिनवाणी शरण छे, परम अमृत रस मेह ॥ २१० ॥ ज्ञानादिक आतमगुणा, रत्नत्रयी अभिराम । एह शरण मुज अतिभलं, जेहथी लहुँ शिवधाम ॥ २११ ॥ एम शरण दृढ धारके, थिर करवो परिणाम । ___ जब थिरता होशे चित्तमां, तब निज रूप विसराम ॥२१२॥ आतमरूप निहालतां, करता चिंतन तास । परमाणंद पद पामिए, सकल कर्म होय नाश ॥ २१३ ॥ परम ज्ञान जग एह छे, परम ध्यान पण एह । परम ब्रह्म परगट करे, परम ज्योति गुण गेह ।। २१४ ।। तिण कारण निज रूपमां, फिरी फिरो करी उपयोग । चिहुँ गति भ्रमण मिटाववा, एह सम नहीं कोई जोग॥२१५॥ निज सरूप उपयोगथी, फिरी चलित जो थाय । तो अरिहंत परमात्मा, सिद्ध प्रभु सुखदाय ॥ २१६ ॥ तीनुका आत्म सरूपका, अवलोकन करो सार । द्रव्य गुण पर्जव तेहना, चिंतवों चित्त मझार ।। २१७ ।। निर्मल गुण चिंतन करत, निर्मल होय उपयोग । तब फिरी निज सरूप का, ध्यान करो थिर जोग ॥२१८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार जे सरूप अरिहंत को, सिद्ध सरूप वली जेह । तेहवो आतम रूप छै, तिणमें नहीं संदेह ॥ २१६ ॥ चेतन द्रव्य साधरमता, तेणे करी एक सरूप । भेद भाव इणमें नहीं, एहवो चेतन भूप ॥ २२० ॥ धन्य जगत में तेह नर, जे रमे आत्म सरूप । निज सरूप जेणे नवि लह्य ते पडिया भव कूप ॥२२१॥ चेतन द्रव्य सभावथी, आतम सिद्ध समान । परजाये करी फेरजे, ते सवि कर्म विधान ॥ २२२ ॥ तेणे कारण अरिहंत का, द्रव्य गुण परजाय । ध्यान करता तेहy, आतम- निर्मल थाय ॥ २२३ ॥ परम गुणी परमातमां, तेहना ध्यान पसाय । भेद भाव दूरे टले, एम कहे त्रिभुवन राय ॥ २२४ ॥ जेह ध्यान अरिहंत को, सोही आतम ध्यान । फेर कछु इणमें नहीं, एहीज परम निधान ॥ २२५ ॥ एम विचार हिरदे घरी, सम्यक्दृष्टि जेह । . सावधान निज रूप में, मगन रहे नित्य तेह ॥ २२६ ।। आतम हित साधक पुरुष, सम्यकवंत सुजान । कहा विचार मन में करे, वरणवू सुणो गुण खाण ॥२२७॥ जेह कुटुंब परिवार सहु, बैठे है निज पास । तिनको मोह छोडाववा, एणी परे बोले भास ॥ २२८ ॥ एह शरीर आश्रित छे. तुम मुज मातने तात । तेणे कारण तुमकु कहुं, अब निसुणो एक बात ॥ २२६ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाघि विचार एतो दिन शरीर एह, होत तुमारा जेह । अब तुमारा नाही है, भली परे जाणो तेह ॥ २३० ।। अब एह शरीर का, आयुर्बल थिति जेह । पूरण भई अब नवी रहे, किणविधि राखी तेह ॥ २३१ ॥ थिति परमाणे ते रहे, अधिक न रहे केणी भांत। तो तस ममता छोडवी, ए समजण की बात ॥२३२॥ जो अब एह शरीर की, ममता करिये भाय । प्रीति राखिये तेहसु, दुःखदायक वह थाय ॥ २३३ ॥ सुर असुरों का देह ए, इन्द्रादिक को जेह । सब ही विनाशक एह छे, तो क्यु करवो नेह ॥ २३४ ॥ इंद्रादिक सुर महाबली, अतिशय शक्ति धरंत । थिति पुरण थये तेह पण, खीण एक कोहु न रहंत ॥२३५।। इद्रादिक सुर जेह छे, तिणकी ऋद्धि अपार । बत्रीश लाख विमान के, सवी सुर आणाकार ॥ २३६ ॥ तीन लख छत्रीश सहस छे, महा बलवंत जुजार । आतम रक्षक जेहना, अनमिष रहे हुशियार ॥ २३७ ।। सात कटक बलनो घणी, ऋद्धि तणो नहीं पार । सामानिक सुरवर प्रमुख, जिहां छे बहु विस्तार ॥ २३८॥ एहवा पराक्रम का धणी, जब थिति पूरण होय । काल पिशाच जब संग्रहे, राखी न सके कोय ॥ २३६ ॥ काल कृतांत के आगले, किसका चले न जोर । - मोहे मुंझया, प्राणिया, टलवंता करे सोर ॥ २४० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समावि विचार तेणे कारण मावित्र तुम, तजो मोह कुँ दूर । समता भाव अंगीकरी, धर्म करो थई शूर ॥ २४१ ।। पुद्गल रचना कारमी, विणसंता नहीं वार । ते ऊपर ममता किसी, धर्म करो जग सार ॥ २४२ ॥ झूठा एह संसार छ, तिणकुं जाणो सांच । भूल अनादि अज्ञान की, मोह करावे नाच ॥ २४३ ॥ करम संयोग आवी मले, थिति पाके सहु जाय। .. क्रोड़ जतन करीये कदा, पण खिन एक न रहाय ॥२४४।। स्वप्न सरीखा भोग छे, ऋद्धि चपला झबकार । डाभ अणी जल बिंदु संम, आयु अथिर संसार ।। २४५ ।। ते जाणो तमे शुभ परे, छंडो ममता जाल। आतमहित अंगोकरी, पाप करो विशराल ॥ २४६ ॥ राग दशा थी जोव कुँ, निबिड़ करम होय बंध । वली दुर्गति माँ जई पडे, जीहां दुःखना बहुधंध ॥ २४७ ॥ मुज उपर बहु मोह थी, मकुं अति दुःख थाय । . पग आयु पुरण थये, किसी ते न रखाय ॥ २४८ ॥ अल्प काल आयु तुमे, देखो दृष्टि निहाल । संबंध नहीं तुम मुज बिचे, मैं फिरता संसार ।। २४६ ।। पावो भाव संबंध थी, मैं मया तुमारा पुत्र । पंथो मेलाप तेगो परे, ए संसारह सूत्र ।। २५० ।। एणि विध सवि संसारी जीव, भटके चिहुं गति माही। कर्म संबंधे आत्री नले, पण न रहे यिर क्यांहो ।। २५.१ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार एह सरूप संसार का, प्रत्यक्ष तुम देखाय । तेण कारण ममता तजि, धर्म करो चित लाय ॥२५२॥ पुन्य संयोगे पामीया, नरभव अति सुखकार । धर्म सामग्रो सवि मली, सफल करो अवतार ॥२५३॥ काल आहेडी जगत में, भमतो दिवम ने रात । तुमकु पण ग्रहशे कदा, ए साचो अवदात ॥ २५४ ॥ एम जाणी संसार को, ममता कीजे दूर। समता भाव अंगीकरो, जेम लहो सुख भरपूर ॥ २५५।। धरम घरम जग सहु करे, पण तस न लहे मरम। शुद्ध घरम समज्या बिना, नवि मिटे तस भरम ॥ २५६ । फटिक मणि निरमल जिसौ, चेतन को जे स्वभाव । धर्म वस्तुगत तेह छे, अवर सवे परभाव ॥ २५७ ॥ राग द्वेष की परिणति, विषय कषाय संयोग। मलीन भया करमे करी, जनम मरण आभोग ।। २५८ ।। मोह करम की गेहलता, मिथ्या दृष्टि अंध। ममतासँ माचे सदा, न लहे निजगुण संग ।। २५६ ।। तिण कारण तुमकु कहुँ, सुणो एक चित लगाय ।। ममता छांडो मूलथी, जेम तुमकुँ सुख थाय ॥ २६० ॥ परम पंच परमेष्टि को, समरण अति सुखदाय । अति आदर थी कीजिये, जेहथी भव दुःख जाय ॥ २६१ ॥ अरिहंत सिद्ध परमातमा, शुद्ध सरूपी जेह । तेहना ध्यान प्रभाव थी, प्रगटे निज गुण रेह ।। २६२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार श्री जिन धरम पसाय थी, हुइ मुज निर्मल बुद्ध I आतम भली परें ओलखी, अब करू तेहनी शुद्ध ॥ २६३ ॥ तुमे पण एह अंगीकरो, श्री जिनवर को धर्म । निज आतम कुँ भली परें, जाणि लहो सवि मर्म ॥ २६४॥ और सबे भ्रमजाल है, दुःखदायक सबी साज । त्तिनकी ममता त्यागके, अब साधो निज काज ॥ २६५ ॥ भव भव मेली मूकीया; घन कुटुंब संजोग । वार अनंता अनुभव्या, सवि संजोग विजोग ॥ २६६ ॥ अज्ञानी ए आतमा, जिस जिस गति में जाय । ममतावश त्यां तेहवो, हुई रही बहु दुःख पाय ॥ २६७ ॥ महातम ए सवि मोह को, किण विध कह्यो न जाय । अनंतकाल एणी परे भमे, जन्म मरण दुःखदाय ॥ २६८ ॥ एम पुद्गल परजाय जेह, सर्व विनाशी जाण । चेतन अविनाशी सदा, ए ना लखे अजाण ॥ २६६ ॥ मिथ्या मोहने वश थई, झूठे को भी साच । क तिहां अचरज किंसो, भव मंडप को नाच || २७० ।। जिनको मोह गली गयो, भेदज्ञान लही सार । पुद्गल की परिणति विषे, नवि राचे निरधार ॥ २७१ ॥ भिन्न लखे आतम थकी, पुद्गल की परजाय । किमही चलाव्यो नवि चले, कशी परे ते न ठगाय ॥ २७२ ॥ भया यथारथ ज्ञान जब, जाणे निज परभाव । थिरता भई निज रूपमें, नवी रुचे तस परभाव ॥ २७३ ॥ Jain Educationa International ปีนี For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ समाधि विचार मात तात तुमकु कही, ए सब साची बात । ते चित में घरज्यो सदा, सफल करो अवदात ॥ २७४ ॥ मुजकु तुम साथे हतो, एता दिन संबंध । ____ अब ते सविं पूरण हुओ, भावी भाव प्रबंध ॥ २७५ ।। विकल्प काइ तुमे मा करो, धर्म करो थइ धीर । मैं पण आतम सायना, करु निज मन करी थोर ॥ २७६ ।। आतम कारज साधबो. तुमकु उचित है सार । मोह न करो किसी कारणे, जिणथी दुःख अपार ॥ २७॥ सहज स्वरूप जे आपमो, ते छे आपणी पास । नहीं किसी सुजाचनां, नहीं परकी किसी आस ॥ २७८ ॥ आपना घर मांही अछे, महा अमूल्य निधान । ते संभालो शुभ परें, चिंतन करो सुविधान ॥ २७६ ॥ जन्म मरण को दुःख टले. जब निरखे निजरूप । अनुक्रमे अविचल पद लहे, प्रगटे सिद्ध सरूप ।। २८० ।। निज सरूप जाण्या बिना, जीव भमे संसार । जब निज रूप पिछाणीओ, तब लहे भव को पार ॥२८१॥ सकल पदारथ जगत के, जांगण देखणहार । प्रत्यक्ष भिन्न शरीर सु, ज्ञायक चेतन सार ।। २८२ ।। द्रष्टांत एक सुणो इहां, बारमा स्वर्ग को देव । ___ कोतुक मिश मध्यलोक में, आवी वसियो हेव ॥ २८३ ॥ कोइक रंक पुरुष तणी, शरीर परजाय में सोय । पैसी खेल करे किसा, ते देखो सह कोय ॥ २८४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार ८७ कबहीक रान. में जाय के. काष्ट - की भारी लेय। नगर में बेचन चालियो, मस्तके धरीने तेह ॥ २८५ ॥ करे मजुरी कोई दिन, -कबहीक मांगे भीख । कबहीक पर सेवा विषे, दक्ष थई धरे शीख ॥ २८६ ॥ कबहीक नाटकीयो हुई, रीझवे नगर के वृद । कबहीक वणिक बनी इसो, करे वेपार अमंद ॥ २८७ ।। कबहीक माल गुमाय के, रुदन करे बहु तेह।। कबहीक नफा पाय के, हास्य विनोद अछेह ॥ २८८ ॥ एणी विधि खेल करे घणा, पुत्र पुत्री परिवार । स्त्री आदिक साथे रहे, नगर मांही तेणी वार ॥ २८६ ॥ वैरी कटक आव्यु घणु', नासण लाग्या लोक । तब ते सुर एम चिंतवे, इहां होशे बहु शोक ।। २६० ।। एम विचार करी सवे, चाले आधी रात । एक पुत्र कु कांघ पर, बीजाकुँ ग्रहे हाथ ॥ २६१ ॥ घरवाखरको पोटलो, स्त्री लहे शिर परि तेह । ___पुत्रीकु आगल करी, एणी पेरे चाले तेह ॥ २६२ ॥ फाटे तूटे गोदडां, तिण की बांधी गांठ । शिर धरी ते आपणे, एणीविव तिहांथी नाठ ॥ २६३ ॥ मारग चालतां तेहने, वाट बटाऊ मले जेह । पूछे कीहां चाल्या तुमे, तब एम भाखे तेह ॥ २६४ ॥ नगर अमारु' घेरीयु, वयरी लश्कर आय । तीण कारण अमे नाशीया, लही कुटुंब समवाय ॥ २६५ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार कोइक गांव में जायके, जिम तिम करु' गुजरान । करम विपाक बने इसा, तेणे करी भया हेरान ॥ २६६ ॥ एम अनेक प्रकार का, खेल करे जगमांही।। पण चित में जाणे इश्यु', मैं सदा सुखमाही ।। २९७ ॥ मैतो बारमा कल्प को, देव महा ऋद्धिवंत । अनोपम सुख विलसु सदा, अदभुत ए विरतंत ॥ २६८ ।। ए चेष्टा जे मैं करी, ते सवि कौतुक काज । रंक परजाय धारण करी, तीणको ए सवि काज ॥ २६६ ॥ जेम सुर एह चरित्रनो, नवी धरे ममता भाव । ___ दोन भाव पण नवी करे, चिंतवे निज सुरभाव ॥ ३०० ।। एणीविध पर परजाय में, मैं जे चेष्टा करंत । ___ पण निज शुद्ध सरूप कु, कबहुं नहीं विसरंत ॥ ३०१ ।। शुद्ध हमारो रूप है, शोभित सिद्ध समान । केवल लक्ष्मी को धणी, गुण अनंत निधान ।। ३०२ ॥ एणी परे एह सरूप को, अनुभव कियो बहुवार । अब किणविध मुज भय नहीं, ए जाणो निरधार ॥ ३०३ ॥ अब आगे निज नारी कु, समजावें शुभ रीति । ममता न करो एह की, न करो पुद्गल प्रीत ॥ ३०४ ॥ थिंति पुरण भई एह की, अब रहणे की नांहि । तो क्यु मोह धरो घणो, दुःख करना दिल माही ।। ३०५॥ मेरा तेरा संबंध • जे, एता दिन का होय । . वध घट को न करी सके, एणोविध जाणो सोय ।। ३०६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार एह शरीर असार छे, विणसंता नहीं वार । थिति बल सवि पूरण हुआ, खीणमें होयगी छार ॥३०७॥ तिण कारण तुमकुँ कहुँ, म घरो इणकी आश । गरज सरे नहीं ताहरी, इनका होये अब नाश ॥ ३०८ || एम जाणी ममता तजी, घरम करो धरि प्रीत | जेम आतम सुख संपजे, ए उत्तम की रीत ॥ ३०६ ॥ काल जगत में सहु सिरे, गाफल रहेणा नाहीं । कबहीक तुजकुँ पण ग्रहे, संशय इणमें नांहीं ॥३१० ॥ तुं मुज प्यारी नारी छे, ए सवि मोह विलास । भोग विटंबना जाणीये, आतम गुण को नाश ।। ३११ ।। स्त्री भरतार संजोग जे, भव नाटक एह जाण । चेतन तुज मुज सारीखो, कर्म विचित्र बखाण || ३१२|| एम विचार चित्त में घरी, ममता मूको दूर | निज स्वारथ साधन भणी, धर्म करो थइ शूर ॥ २१३ ॥ जो मुज ऊपर राग छे, तो करो घरम में सहाज । इ अवसर तुज उचित है, ए समो अवर न काज ॥३१४॥ धरम उपदेश एणी परे, तेरा हित के काज । मैं को करुणा लायके, तेणे साधो शिवराज || ३१५॥ फोगट खेद न कीजिये, कर्म बंध बहु थाय । जाणी एम ममता तजी, धर्म करो सुखदाय ॥३१६॥ हवे निज कुटुंब मणी कहे. हितशिक्षा सुविचार | ममता मोह छोडाववा, एणीविघ करे उपगार ॥३१७॥ Jain Educationa International κε For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार सुणो कुटुंब परिवार सहु, कहुँ तुमकु हित लाय । एह मेरे आउ थिति पूरण भई, एह शरीर की भाय ॥ ३१८ ॥ तेणे कारण मुज उपरे, राग न घरना कोय | राग कर्या दुःख उपजे, गरज न सरणी जोय ॥ ३१६॥ थिति संसार की, पंखीका सेलाप । खीण- खीण मे उड़ी चले, क्या करना संताप ॥ ३२० ॥ कोण रह्या इहां थिर थई, रेहणहार नहीं कोय । प्रत्यक्ष दीसे इणीपरे, तुमे पण जाणो सोय ॥३२१ ॥ तुम सहु साथ सुँ, क्षमा भाव छे सार । आनंदमां तुम सहु रहो, धर्म उपर धरो प्यार ।। ३२२ ॥ सायर मां बूड़तां, ना कोई राखणहार धर्म एक प्रवहण समो, केवली भाखित सार ॥ ३२३ ॥ ए सेवो तुम चित घरी, जेम पामो सुख सार । दुरगति सवि दूरे टले, अनुक्रमे भव निस्तार ॥ ३२४ ॥ कुटुंब परीवार कुँ, समजावी अवदात | पछी पुत्र बोलाय के, भाखे एणी सुणो पुत्र शाणा तुमे, केहणे को ए परे बात ।। ३२५|| सार । मोह न करवो माहरो एह अथिर संसार ॥ ३२६ ॥ श्री जिनधर्म अंगीकरो, सेवो घरी बहु रागः । तुमकुं सुखदायक घणो, लहेशो महा सोभाग ॥ ३२७॥ व्यावहारिक संबंध थी, आणा मानो सार तेणे कारण तुमने कहुँ, घारो चित्त मकार ॥३२८॥ भव एम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only i Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार प्रथम देव गुरु धर्म की करो अति गाढ प्रतीत । मित्राई करो सुजन की, धर्मी धरो प्रीत ॥३२६।। दान शियल तप भावना, धर्म ए चार प्रकार । राग धरो नित्य एहसु, करो शक्ति अनुसार ॥३३०॥ सजन तथा परजन विषे, भेदविज्ञान जेम होय। एह उपाय करो सदा, शिव सुखदायक सोय ॥३३१॥ जे संसारी प्राणिया, मगन रहे संसार । प्रीत न कीजिये तेह की, ममता दूरनिवार ॥३३२॥ रागी जीव की संगते, एह संसार मझार । काल अनादि भटकतां, किम ही न लहीये पार॥३३३॥ रागे राग दशा वधे, तेम वली विषय विकार । ममता मूर्छा बहु वधे, ए दुर्गति दातार ॥३३४॥ तेणे संसारी जीव की. तजी संगत दिलधार । ज्ञानवंत पुरुषां तणी, करो संगति सुविचार ॥३३५।। धर्मात्मा पुरुष तणी, संगते बहु गुण थाय । जश कीर्ति वाधे घणी, परिणति सुघरे भाय ॥३३६॥ एम अनेक गुण संपजे, एह लोक में सुखकार । वली परलोक में पामीये, स्वर्गादिक सुखसार ॥३३७।। वली उत्तम पुरुषतणी, संगते लहीये धर्म । धर्म आराधी अनुक्रमे, पामीये शिवपुर सर्म ॥३३८॥ धरमी उत्तम पुरुष की, संगति सुखनी खाण। दोष सकल दूरे टले, अनुक्रमें पद निर्वाण ॥३३६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार एणी विध तुमकुहितभणी, वचन कह्यां सुरसाल । जो तुमकुं सच्चा लगे, तो कीजो चित्त विशाल ॥३४०॥ दया भाव चित्त आणके, मैं कह्या धर्म विचार । ... जो तुम हृदय मां धारशो, तो लेशो सुख अपार ॥ ३४१ ।। एम सबकुँ समजाय के, सब से अलगा होय । अवसर देखी आपणां, चित्त में चिंते सोय ॥ ३४२ ॥ आयु अल्प निज जाण के, समकित दृष्टिवंत । दान पुन्य करणा जिके, निज हाथे करे संत ॥ ३४३ ॥ महाब्रत धारी मुनिवरा, सम्यग ज्ञान संयुक्त । धारक दशविव धर्मना, पंच समिति त्रण गुप्त ॥ ३४४ ॥ बाह्य अभ्यंतर ग्रंथि जे, तेहथी न्यारा जेह । बहुश्रुत आगम अर्थना, मर्म लहे सहु तेह ॥ ३४५ ॥ एहवा उत्तम गुरु तणो, पुन्य थी जोग जो होय ।। .. अन्तर खुली एकान्त में, निशल्य भाव होय सोय ॥३४६॥ एहवा उत्तम पुरुषनो, जोग कदी नवी होय । तो समकित दृष्टि पुरुष, महा गंभीर ते जोय ॥ ३४७ ।। एहवा उत्तम पुरुष के, आगे अपनी बात । हृदय खोल कर कीजिये, मरम सकल अवदात ॥ ३४८ ।। जोग जीव उत्तम जिके, भव भीरु महाभाग्य । एहवो जोग न होय कदा, कहेणे को नही लाग ॥३४॥ अपना मन में चिंतवे, दुष्ट करम वश जेह । पाप करम जे होय ग, बहु विध निदे तेह ॥ ३५० ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समावि विचार श्री अरिहंत परमातमा, वली श्री सिद्ध भगवंत । ज्ञानवंत मुनिराजनी, वली सुर' समकितवंत ॥ ३५१ ॥ इत्यादिक महापुरुष की, साख करो सुविशाल । वली निज आतम साखसु, दुरित सवे अशराल ॥ ३५२ ।। मिथ्यादुष्कृत भली परें, दोजे त्रिकरण शुद्ध । एणी विध पवित्र थई पछे, कोजे निर्मल बुद्ध ॥ ३५३ ॥ अवश्य मरण निज मन विषे, भासन हुवे जाम । - सर्व परिग्रह त्याग के, आहार चार तजे ताम ॥ ३५४ ।। जो कदि निर्णय नवी हुवे, मरण तणो मन माही। तो मरजादा कीजिये, इतर काल की तांही ॥ ३५५ ।। सर्व आरंभ परिग्रह सहु, तिनको कीजै त्याग । चारे आहार वली पंचखिये, इणविध करी महाभाग ।।३५६॥ हवे ते समकित दृष्टिवंत, थिर करी मन वच काय । खाट थी नीचे उतरी, सावधान अति थाय ॥ ३५७ ॥ सिंह परे निर्भय थइ, करे निज आतम काज । मोक्ष लक्ष्मी वरवा भणी, लेवा शिवपुर राज ॥ ३५८ ।। जिम महा सुभट संग्राम मां, वैरी जीतण काज । रणभूमि में संचरे, करता अतीह दीग्राज ॥ ३५६ ।। इणीविध समकितवंत जे, करी थिरता परिणाम । आकुलता अंशे नहीं, धीरज तणु ते धाम ॥ ३६० ।। शुद्ध उपयोग मां वरततो, आतमगुण अनुराग । परमातम के ध्यान में, लीन और सब त्याग ॥ ३६१ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि विचार ध्याता ध्येयमो. एकता, ध्यान करता, होय। __ आतम होय परमातमा, एम जाणे ते सोय ॥ ३६२ ॥ सम्यक्दृष्टि शुभमति, शिवसुख चाहे तेह। रागादि परीणामसों, खिण नवी वरते तेह ।। ३६३ ॥ किणही पदार्थ की नहीं, वांछा तस चितमाह । मोक्ष लक्ष्मी वरवा भणी, धरतो अति उछांह ॥ ३६४ ॥ एणिविधि भाव विचारतां, काल पुरण करे सोय । ___ आकुलता किणविध नहीं, निराकुल थिर होय ॥ ३६५ ॥ आतमसुख आणंदमय, शांत - सुधारस कुंड। तामे ते झीलो रहे, आतम. वीरज उदंड ।। ३६६ ॥ आतम सुख स्वाधीन छे, और न एह समान । एम जाणी निजरूप मैं, वरते घरी बहुमान ॥ ३६७॥ एम आणंदमा वरतता, शांत परिणाम संयुक्त । आयु निज पुरण करी, मरण लहे मतिवंत ।। ३६८ ॥ एह समाधि प्रभावथो, इन्द्रादिक को ऋद्ध । उत्तम पदवी ते लहे, सर्व कारज को सिद्ध ।। ३६६ ।। महा विभूति पायके, विचरंता भगवान् । वलि केवली मुनिराजने, वंदे स्तवे बहुमान ॥ ३७० ।। सुरलोके शास्वत प्रभु, नित्य भक्ति करे तास। कल्याणक जिनराजना, ओच्छवं करत उलास ॥ ३७१ ।। नंदीसर , आदे घणां, तीरथ वंदे सार। समकित निर्मल ते करे, सफल करे अवतार ॥ ३७२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समाधि विचार सुर आयु पुरण करो, तिहाँ थो चवीने तेह ।। मनुष्य गति उत्तम कुल, जनम लहे भवी तेह ॥ ३७३ ॥ राज्य ऋद्धि सुख भोगवी, सदगुरु पासे तेह । संजम धर्म अंगोकरी,गुरु सेवे धरी नेह ॥ ३७४ ॥ शुद्ध चरण परिणाम थी, अति विशुद्धता थाय । क्षपक श्रेणी आरोहीने, धाती करम खपाय ॥ ३७५ ॥ केवलज्ञान प्रगट भयो केवल दरशन भास । । एक समय त्रण कालकी, सब वस्तु प्रकाश॥ ३७६ ॥ सादि अनंत थिति करी, अविचल सुख निरधार । वचन अगोचर एह छे, किणविध लहीये पार ॥ ३७७ ॥ महिमा मरण समाधिनो, जाणो अति गुणगेह । तिण कारण भवी प्राणिया, उद्यम करीये तेह ॥ ॥३७॥ एणीविध मरण समाधि को, संक्षेपे सुविचार । दुहा भास रचना करी, निज परने उपगार ।। ३७६ ।। मरण - समाधि विचारनी, प्रति मली मुज एक। तिण में समाधि मरण को वर्णव कियो अति छेक॥३८०॥ पण भाषा मरुदेश की, तिणमें लखीयो तेह । तिण कारण सुगम करी, दुहा बंध कियो एह ।। ३८१ ।। अल्पमति अनुसारथी, बिन उपयोगे जेह। विरुद्ध भाव लखियो जिके, मिथ्यादुष्कृत तेह ।। ३८२ ॥ ॥ इति समाधि विचार ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का आत्मज्ञान धर्म की व्यवहारिक व्याख्या___ व्यवहारिक धर्म-जैसे दया, दान, शील, जप तप व्रतादि की आराधना से मनुष्य की सद्गति होती है। आराधना में उसके मनोभाव मन्द या तीव्र की अपेक्षा से मनुष्य या दैवगति उसे प्राप्त होती है। अर्थात् नरक या तिथंच रूप - दुर्गति में जाने से बच जाता है। यह तो शारीरिक एवं जीवन परिस्थिति को प्रतिकूलता से बचकर उसकी अनुकूलता प्राप्त करने की बात हुई। धर्म की यह व्याख्या तो प्रायः सभी धर्म करते हैं। .. तो फिर वीतराग सर्वज्ञदेव के धर्म की विशेषता क्या हुई ? भगवान महावीर का उपदेश है कि शुभ कार्य, विचार एवं भावना अनुरूप जीवन जीने से सद्गति तो प्राप्त होती है, किन्तु इतने से ही जीव का जन्म मरण रूप भवभ्रमण नहीं रुकता। क्योंकि अनादिकाल से जीवों की चेतना में अज्ञानतावश जो शल्य-कांटे चुभे हुए हैं ( तीन काटे जैसे, मायाशल्य, नियाणा शल्य, मिथ्यादर्शन शल्य ) उन्हें चेतना से बाहर निकालने के लक्ष्य से धर्म आरावन करके उन्हें अपने अन्तर से निकाले बिना जोव में मोक्ष के योग्य पात्रता नहीं आ सकती, पात्रता तो मायाशल्य दम्भ रहित धर्म आराधना करने से आती है। नियाणा शल्यफल को इच्छारहित-निष्काम आराधना करने से तथा मिथ्यादर्शन-शल्य आत्मा की सच्ची समझपूर्वक आराधना करने से विशेष रूप से पात्रता आती है, अर्थत् जीव को व्यवहार से सम्यग् दर्शन होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) विशेष रूप से धर्म आराधना करते हुए जीव को उत्कृष्ट भाव उत्पन्न होने से वह त्रिकरण रूप पुरुषार्थ करता है। पहला (१) यथाप्रवृतिकरण इन्द्रियजन्य भोगों से उसे ज्ञानगर्भित वैराग्य उत्पन्न होता है ( भोग में मन्दरुचि या रुचि का अभाव हो जाना) व (२) अपूर्वकरण-मन वच, काया से होने वाले व्यवहारिक धर्म-जप, तपादि से पृथक अन्तर में खोज शोध रूप या चितवृति का व्यायाम-स्वाध्याय, ध्यान रूप अन्तर्साधना करता हैं । (३) अनिवृतिकरण-उपरलिखित सद् अभ्यास से अपने सहज शुद्धात्म स्वरूप एवं स्वभाव का बोध-अनुभूति हो जाना, निश्चय से सम्यग् दर्शन हैं। अर्थात चित्तवृत्ति का अन्तरात्मा में अन्तमुहूर्त के लिये समाधिस्थ हो जाने पर निश्चय से सम्यग्दर्शन हो जाता है। जैन दर्शन में निश्चय नय से धर्म शब्द की व्याख्या वस्तु स्वभावो धम्मो है। आत्म स्वभाव का उसे अनुभव होने लगता है। उसे अपने आत्मा का धर्म-दर्शन उपयोग-वस्तुओं का सामान्य बोध, तथा ज्ञान उपयोग वस्तुओं का विशेष बोव-व्योरेवार जानकारी हो जाती है। इन सब का बोध-अनुभव करने वाले अपने शाश्वत, सहज, शुद्धात्मा की श्रद्धा-सम्यक्त्व हो जाती है। ___ वह जब मनोगुप्ति पूर्वक अपनी चित्तवृत्ति को आत्मबोध रूप अनुभव ज्ञान में समाये रखता है, तब चित्तवृत्ति की वह समाधिस्थ अवस्था ही समता भाव हैं, भाव सामायक है, अन्तरंग चारित्रसंयम भाव हैं, अभेद रत्नत्रय है, अस्तुः, यह सहज, सरल मोक्षमार्ग हैं, ऐसे अपने सहज शुद्धात्मा के ध्यान में रहने वाला ज्ञानी आत्मा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) श्वासोश्वास में अपने अनादि काल के कर्मों के बंध को शिथिल करके तोड़ता हुआ अपने चरमलक्ष केवलज्ञान की ओर अग्रसर होता है तथा बंधन रहित अवस्था मोक्ष के नजदीक पहुँचता है, इच्छा कामना रहित ऐसी सहज चित्तवृत्ति की अवस्था को ज्ञानियों ने भाव से तप कहा है जिसमें सब कर्मों का नाश कर देने की अनुपम शक्ति रही हुई है । उपरोक्त आत्म विज्ञान-निश्चय से सम्यक्त्व सहित अपने सहज शुद्धात्मा का ज्ञान भगवान महावीर को गत् तीसरे भव में ही हो गया था। और निश्चय से सम्यग्-दृष्टि मनुष्य को होता है, तथा जिसने दर्शन-मोहनीय की सातों प्रकृतियों की जड़ से क्षय कर दिया हो, उसे सर्वदा कायम रहता हैं। भगवान महावीर का समताभाव-शुद्धात्म साधन स्वरूप । 'करेमि सामाइयं' पाठ पूर्वक दीक्षा ग्रहण करने के बाद उन्हें चौथा मनःपर्यवज्ञान प्रगट हुआ। __ वे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति रूप उत्कृष्ट साधना कायोत्सर्गध्यान में छ द्रव्य, नौ तत्व आदि वस्तु स्वरूप एवं उसके स्वभाव का अर्थात पृथक-पृथक द्रव्यों के पृथक गुण एवं पर्याय का चिन्तन, मनन ध्यान के द्वारा वस्तु स्थिति का समाधान होने पर अपने विशुद्ध अन्तरात्मा की अनुभूति में समाधिस्थ होकर परम शान्ति एवं परमानन्द का अनुभव करते थे। ऐसे परम उत्कृष्ट समता भाव को शास्त्रों में अभेद रत्नत्रय-सम्यग्-दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः ( तत्वार्थसुत्र । ) कहा है । उनके उपदेशानुसार जीवादि तत्वों की दृढ़ श्रद्धा हो तथा उस श्रद्धाबल से मनुष्य को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) यथाप्रवृति आदि त्रिकरण के द्वारा निश्चय से सम्यग् दर्शन-शरीरादि सभी पौद्गलिक वस्तु से पृथक अपने सहज शुद्धात्म स्वरूप एवं स्वभाव का बोध-अनुभूति हो जाय तो उपर्युक्त भाव सामायक इस काल में भी सम्भव है। लेकिन भरतक्षेत्र के आजकल के वातावरण में उस भाव में अधिक समय स्थिर रहना कठिन हैं, तो भी साधन रूप अभ्यास मुमुक्षु को करते रहना चाहिये, यह उनका कर्तव्य है। साधना काल में जब भगवान को आहार एवं विहार का प्रयोजन होता, तब वे ईर्यादि पांच समिति पूर्वक अर्थात जीवों की यत्नाजयणा पूर्वक चलना, बोलना, आहारादि करते थे, जिससे किसी भी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट दुःख न पहुंच जाय। क्योंकि वे महसूस करते थे कि चींटी से हाथी पर्यन्त ही नहीं बल्कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पतिकाय भी मेरी आत्मा के समान अन्य जीवों का निवास स्थान है, और चेतन शक्ति की अपेक्षा सभी जीव समान है, तथा शरीर वा विचार का भेद जो दीखता है वह तो अपने अपने विभिन्न कर्मों के उदयानुसार है। ___ अपने विनाशी शरीर की सुख सुविधा के लिये उनके प्राणों को ठेस पहुंचाना हिंसा हैं , पाप है जो अपनी आत्मा के लिये भी इस भव में, परभव में दुःख का कारण है। अस्तु वे उपयोग पूर्वक सावधानी से विहारादि करते थे। उनका अन्य किसी प्राणी को कष्ट नहीं देने का कितना उत्कृष्ट भाव था-वह अपने निम्न उदाहरण से अनुभव कर सकते हैं । जैसे वे किसी के द्वार पर आहार लेने को गये, उस द्वार पर पहले से कोई भीखमंगा अथवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) कुतादि आहार की प्रतीक्षा में खड़ा है, और देने वाले के पास आहार अल्प हैं, तो वे वहाँ से आहार लिये बिना ही चले जाते थे । कितनी सहृदयता थी । अस्तु : मुमुक्षुओं को भी अपने अपने जीवन उपयोगी आहारादि सभी कार्य उपयोग जीवदया का ख्याल रखते हुये करना उचित हैं, भी यदि जीव विराधना हो जाय तो मन वचन याचना करनी चाहिये । पूर्वक जयणा से - पशु पक्षी कृत, मनुष्य कृत, देव कृत उपसर्गों को उनकी अज्ञानता समझ, अथवा अपने पूर्वकृत कर्मों की प्रतिक्रिया जानकर भगवान उन्हें क्षमा तो कर देते ही थे, तथा उन लोगों की अज्ञानता से उनके होने वाले कर्मबंध के भयानक परिणाम के ख्याल से उनका हृदय व्यथित हो करुणा भाव से भर जाता था, सामने वाले में पात्रता होती तो सदुपदेश के द्वारा बोधित कर आत्म कल्याण के सन्मार्ग में लगा देते थे । उन्होंने अनेक मरणान्तक उपसर्ग सहे थे, जिसमें से एक चण्डकौशिक- भयानक विष वाले सर्प का उदाहरण दे रहे हैं :- एक समय सेयविया जिला के एक ग्राम से विहार करते समय गाँव वालों ने उनसे निवेदन किया कि उस दिशा में न जावें क्योंकि उधर जंगल में दृष्टिविषवाला एक भयानक सर्प रहता है, वह उधर से जाने वाले किसी को बिना इसे नहीं छोड़ता । किन्तु महावीर उस दिशामें ही विहार कर गये, तथा संध्या होने से पहले सर्प के बिल के पास पहुंचकर कायोत्सर्ग ध्यान में स्थिर खड़े होकर आत्म ध्यान में तल्लीन हो गये । Jain Educationa International उपयोग रखते हुए काया से क्षमा For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्प जब बाहर निकला तो बिल के निकट ही उन्हें खड़े देखकर अत्यन्त क्रोधित हो उनके पैर में जोर से डस दिया, लेकिन इस कार्य से उन पर कोई प्रतिक्रिया न होती देख आश्चर्य से स्तम्भित हो गया, तब भगवान ने उसे सम्बोधन किया है चण्डकौशिक ! बुज्झ बुज्झ ! अपने पूर्व जन्म का स्मरण कर और आत्म बोध को पाकर शान्त एवं स्थिर हो जा ! इस प्रकार बोधयुक्त आशी दि वचन सुनकर वह शांत हो गया तथा विचार मग्न होने पर जातिस्मरण ज्ञान द्वारा उसे अपने पूर्वभव का अनुभव हुआ, तब वह प्रसन्न होकर अपना मुँह को बिल में डाल कर अनशन ब्रत (खाने पीने चलने फिरने का त्याग रूप) ग्रहण कर शरीर से स्थिर हो गया तथा आत्म चिन्तन-ध्यान में तल्लीन हो गया। उसके शरीर को चीट्टियों ने घेर कर अपना आहार प्रारम्भ कर दिया तथा तीन दिनों में उसका शरीर चलनी की तरह हो गया, लेकिन वह अपने ध्यान से विचलित नहीं हुआ, आयु के अन्त में देह को छोड़कर आठवें स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। पूर्व साधन के बल से हिंसक पशु, सत् संग से तुरत आत्म-बोध प्राप्त कर अनशन ग्रहण कर अपनी गति सुधार ली और मोक्ष की ओर अग्रसर हो गया। तब अपने मनुष्य होकर, विवेक, विचार शक्ति वाले मनुष्य कहलाकर भी गडरप्रवाहीभेड़ों की भांति ही अपने लोकरंजन विचार एवं आचार को अपनाए रहेगें, तो आत्मोन्नति-मोक्ष के पथ पर कैसे अग्रसर हो सकेंगे ? जिस प्रकार भगवान प्रतिकूल उपसर्ग करने वालों के प्रति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) द्वेषभाव क्रोधादि भाव न कर क्षमादि भाव से शान्त एवं स्थिर ही रहते थे , उसी प्रकार इन्द्रादि, राजादि के अनुकूल उपसर्ग बन्दन भक्ति आदि करने वालों पर खुश भी न होकर शान्त बने रहते थे, अर्थात् सदा वीतराग भाव-दशा में रहते थे। ऐसे वीतराग सर्वज्ञ देव भगवान महावीर की वाणी से अपने मुमुक्षु सहज शुद्धात्म बोध प्राप्त कर उस पर अपनी श्रद्धा को दृढ़ न कर सके तथा तीन प्रकार से समता भाव जैसे पराश्रित समता भाव-आत्मवत् सर्व जीवेषु (२) शरीराश्रित समताभाव पौद्गलिक इन्द्रियजन्य सुखाभास में खुश न होना, मन्द परिणाम रखना तथा शारीरिक, मानसिक कष्टों में चिन्तित होकर घबड़ाना नही शान्त रहने का प्रयत्न । ( ३ ) आत्माश्रित समताभाव अन्तरात्मा परमात्मा एक से हैं, क्यों कि प्रत्येक जीव के असंख्य प्रदेश आत्म शक्ति के फैलाव का क्षेत्र अर्थात चींटी के शरीर में उतना सा क्षेत्र और हाथी के शरीर में हाथी जितने क्षेत्र में चेतना व्याप्त रहती है, उसे आत्म प्रदेश की संज्ञादी गई हैं जो रबड़ की तरह एलास्टिक हैं वह तो शरीर के अपेक्षा से चेतना की बात है, लेकिन आत्मज्ञान की अपेक्षा से केवलज्ञान लोकालोक तक फैल सकता है। अस्तु चेतना का फैलाव असंख्य प्रदेश कहा गयाहै उसमें से आठ रुचक प्रदेश में अर्थात उन प्रदेशों में जो केन्द्र स्थान, मध्यस्थान में है उनमें कभी कर्म नहीं लगते वह कर्म रहित हिस्सा सहज है, शुद्ध है नेगम नय से सिद्ध के समान पवित्र हैं। उस अपेक्षा से आत्माअन्तरात्मा परमात्मा तुल्य है अतः मुमुक्षु को अपने अन्तर सहज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्मा के ध्यान में अपनी चित्तवृति को योग कर-लगाकर स्थिर रहने रूप समाने रूप पुरूषार्थ का अभ्यास करते रहना उसका कर्तव्य है। सर्वजीव छे सिद्ध सम, जैसमझे ते थाय, सद्गुरू आज्ञा, जिन दशा, निमित कारण माय । उपादान नु नाम लेई एजे तजे निमित्त पावे नहीं सिद्धत्व ने, रहे भ्रान्ति मां स्थित । आत्म-सिद्वि ऐसे उत्कृष्ट आत्म साधन रूप समता भाव से ही अहिंसा परमोधर्म का सिद्धान्त प्ररूपित हुआ उसको सर्वाङ्ग पालने के लिए सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, विनय, सरलता, संतोष तपादि व्रत प्रचलित हुए हैं। अनादिकाल से प्रत्येक संसारी जीव को अष्ट कर्म रूपी भयानक रोग लगा हुआ हैं। किन्तु अज्ञानतावश वह रोग को रोग नहीं मानने की भूल करता आया हैं तथा कर्म रोग उत्पन्न होने के असली कारण शुभाशुभ भाव एवं कार्य को करता हुआ वह रोग को मिटाना चाहता है, किन्तु उससे रोग मिटते नहीं, उपशम-दब जाते हैं, फिर मौका पाकर अपना प्रभाव जीव पर जमाते हैं अपनी भूलके फलस्वरूप जीव को अनादि काल से चार गतियों में जन्म मरणरूप से भटकना पड़ रहा है जिससे अशान्ति एवं दुःख अनुभव करना पड़ रहा है, अपनी इस अनादि भूल को सुधारने का स्वर्ण सुयोग उसे मनुष्य योनि, आर्य क्षेत्र में ही मिलता है । अतः अपने मूल्यवान बिवेक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) जान एवं विचार शक्ति को शारीरिक सुख सुविधा को प्रास करने में ही अपने जीवन को व्यर्थ में न खो दें उदयानुसार शरीर के भरण पोषण केसाथ साथ ही अपने आत्म कल्याण का मार्ग अवश्य खोज निकाले जिसके फलस्वरुप जन्म-मरण के दुःख से मुक्त हो सकें। __सभी तीर्थकर एवं भगवान महावीर के जीव ने भी अपने गत तीसरे भव में ही इस तथ्य को उपलब्ध किया तथा उस क्षेत्र के तीर्थकर के आदेशानुसार अपने मिथ्यादर्शन की भूल को सम्यग्दर्शन से सुधारा तब उनका मिथ्या ज्ञान एवं चारित्र भी शुद्ध होकर सम्यग् ज्ञान चारित्र रूप से प्रतिफलित हुए अर्थात् उनके अनादि काल के कर्म रोग का मूल कारण हिंसक प्रवृति उसको चरितार्थ करने वाले असत्य, चोरी मैथुन, परिग्रह संचय करने रूप क्रियात्मक एवं रागभाव-लोभ लालसा, माया प्रपंच द्वेषभाव-क्रोध मानादि रूप भाव-परिणामात्मक अनादि रोग की दवा उन्होंने उस क्षेत्र के तीर्थकर के आज्ञानुसार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह, क्षमा, विनय, सरलता, संतोष तप ब्रतादि त्रिकरण त्रियोग ने आराधन किया जिससे उनको सम्यग्दर्शन ज्ञान जो विचारात्मक (थियोरिटिकल) था, वह चारित्र तपरूप से क्रियात्मक (प्रैक्टिकल ) होने पर उन्हें अपूर्व शान्ति एवं आत्मानंद का अनुभव हुआ, जिससे उनका चित्त अति प्रफुल्लित हो सबि जीव करू शासन रसी, ऐसी भाव दया मन उल्लसी" (स्नात्रपूजा) ऐसी तीब्रभावना से ओतप्रोत हो जाने से तीर्थकर नामादि कर्म का बंध हुआ। और वे इस काल में इस भारत क्षेत्र के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) विहार प्रांत के क्षत्रियकुण्डग्राम के सिद्धार्थ राय की भार्या त्रिशला रानी की कोख से चैतसुदी १३ की शेष रात्रि को आज से करीब २५७२ वर्ष पहले जन्मे थे। उनके उपदेश का सार यह है कि : अपने अनादि मिथ्यादृष्टिपन-समझ की भूल को पहले सुधारो, समझ की भूल सुधरने पर शरीरादि का आकर्षण कमता हुआ आत्म कल्याण की दिशा में अपनी दृष्टि जायेगी तब अपना लक्ष नाशवान शरीर के सुखाभास से हटता हुआ आत्मा के स्थाई स्वाधीन एवं सत्यानंद की और क्रमशः स्थिर हो जायेगा, यह तभी सम्भव होगा जब अपने 'हिंसादि क्रियात्मक आचार एवं मोह-राग द्वेष भावात्मक विचार रूप अनादि रोग की दवा अहिंसादि क्रियात्मक तथा क्षमादि भावात्मक औषधि सेवन भले प्रकार से करेंगे तब अनादि रोग से मुक्त हो सकेंगे। सारांश जीव अपने समझ को भूल को जिन वाणी रूप सम्यग् दर्शन से सुधारे तथा अपना लक्ष शरीर के सुखाभास को छोड़कर आत्म कल्याण की दिशा में बदले, तब सम्यग् दर्शन-आत्म प्रतीति रूप से होगी तब सहजात्म ज्ञान होगा, एवं चारित्र-समता भाव रूप में परिवर्तित होकर क्रमशः आत्मसिद्धि हो जायेगी। हिंसा, क्रोधादि अनादि रोग की दवा अहिंसा, क्षमादि हैं, और दवा की आवश्यकता रोगी को ही रहती है, रोग से निरोग होने तक सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप पथ्य को आवश्यकता है ही। अहिंसादि शब्द नकारात्मक है वह हिंसादि नहीं करने का कहता है, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) किन्तु सकारात्मक करना क्या चाहिये जिससे संसार का शीव्रता से अंत आ जाए, वह यथार्थ आत्म श्रद्धा के साथ सहजात्म स्वभावसमता भाव में स्थिर रहने रूप चितवृति की निर्विकल्प समाविस्थ, अवस्था ही है। अपने चितवृति का हमेशा के लिये सहज शुद्धत्मा में समा जाना समाधिस्थ हो जाना केवलज्ञान हैं, आयु आदि समी कर्मो से छूटने रूप अवस्था मोक्ष हैं, परम शान्ति है, परमात्मा की परमानन्द अवस्था है, जो शाश्वत हैं। ॐ शांति, शान्ति। नम्र निवेदक मुमुक्षु केशरी रामो रामो अरिहंताप - m गमी आयरियारा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रारिण मोक्षमा - (णमो उवज्मायारणं मोलोमay व साहू, ॐकार बिन्दु संयुक्त नित्यं ध्यायन्ति योगिनः कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Fersona