SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन निर्वाह के लिये जल और वनस्पति-अन्नादि के जीवों की हिंसा होती हैं, किन्तु वह भी आवश्यकता से अधिक नहीं होनी चाहिये एवं जयणा-दयाभाव पूर्वक जीवन बिताना कर्तव्य हैं। शरीर प्रयोजन के लिये जिन प्राणियों की हिंसा होती है उसके लिये सुबह शाम और सोते समय हार्दिक पश्चाताप पूर्वक उनसे माफी मांगनी चाहिये। सच्चे हृदय से पश्चाताप पूर्वक क्षमत-क्षामणा करने से सब पाप धुल जाते हैं, और जीवों के साथ का अनादि काल का वैर-विरोध मिट जाता है, जिससे वर्तमान जीवन में शान्ति एवं आनन्द उपलब्ध होता है, ओर भविष्य जीवन भी सुघरता है। __ पाप से हल्का होने से आत्मा अभिमान को छोड़ कर विनयी बनता है और मार्ग-दर्शक शुद्ध देव, गुरु, धर्म के प्रति श्रद्धालु बनता है, और माया शल्य-दम्भ का त्याग कर सरल हृदय से, नियाणाशल्य-इस जीवन व अगले भव की कामना-वासना से रहित निष्काम चित्त से, मिथ्या-दर्शन शल्य आत्म समझ पूर्वक आत्म शुद्धि के लिये मार्ग-दर्शक सद्गुरु की आज्ञा रूप धर्म की आराधना करता है। वह व्यवहार से सम्यग् दी है। ऐसी मनो विकार रहित शुभ आराधना से उसमें पात्रता आती है, तब उसे असारसंसार से ज्ञान गर्भित वैराग्य होने लगता है। यह उसका आत्म दिशा में पहला कदम यथाप्रवृतिकरण है, अब वह मन वच काया से होने वाली आराधना को गौण करके कायोत्सर्ग ध्यान में चित्तवृति के द्वारा अन्तर में खोज शोध प्रारम्भ करता है, ऐसा अपूर्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003812
Book TitleAtma Bodh Sara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKavindrasagar
PublisherKavindrasagar
Publication Year1975
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy