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( घ ) करण दूसरा कदम है। ऐसी स्वाध्याय ध्यान में चित्तवृति के व्यायाम से आत्म समाधान होने पर वह निर्विकल्प-चित्त होता है। यह तीसरा कदम अनिवृतिकरण है। इन तीन करण के द्वारा जब उसे अपनी शुद्धात्मा का साक्षात्कार होता है, तब वह निश्चय से सम्यग दर्शी बन जाता है । यह उसकी आत्म-जागृति है। .. जो एक बार अमृत के स्वाद को चख लेता है, वह स्वभावतः विष की ओर दृष्टि नहीं करता, यदि कर्मों के दबाव से हो जाय तो उसे उपशम सम्यग्दर्शी कहते हैं, वह मुक्त तो होगा, लेकिन देर से होगा और जो उस अनुभूति को नहीं विसरता, कम बेश रूप से वह अनुभव रहता है, वह क्षयोपशम सम्यग दर्शी हैं अर्थात वह अधिक से अधिक १५ या १६ भव में मुक्त होता है, ऐसा सम्यग् दर्शी जब सामायक में अपने शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान में ध्यानस्थ रहता है अर्थात उसकी चित्तवृति अन्तमुखी होकर अपने सहज स्व पर प्रकाशक ज्ञायक स्वभाव में समाधिस्थ रहती है और अपने सहजात्म स्वरूप का अनुभव करती है तब वह आत्माश्रित समताभाव में है, यही उसका भाव सामायक है । ऐसे समताभाव में रहा हुआ वह नये कर्म नहीं बांधता तथा पुराने कर्मों को श्वासोश्वास में क्षय करता है। ऐसी साधना की सिद्धि होने पर आत्मा को केवलज्ञान प्रगट होता है। . दूसरा पराश्रित समताभाव "आत्मवत् सर्व जीवेषु" चेतन सत्ता की दृष्टि से सभी आत्मा मेरी आत्मा के समान है, इसलिये किसी की हिंसा नहीं करना अथवा मन वच काया से किसी को भी कष्ट नहीं देना, यदि शरीरादि के निर्वाह के कारण देना पड़
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