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________________ समाधि विचार कोइक गांव में जायके, जिम तिम करु' गुजरान । करम विपाक बने इसा, तेणे करी भया हेरान ॥ २६६ ॥ एम अनेक प्रकार का, खेल करे जगमांही।। पण चित में जाणे इश्यु', मैं सदा सुखमाही ।। २९७ ॥ मैतो बारमा कल्प को, देव महा ऋद्धिवंत । अनोपम सुख विलसु सदा, अदभुत ए विरतंत ॥ २६८ ।। ए चेष्टा जे मैं करी, ते सवि कौतुक काज । रंक परजाय धारण करी, तीणको ए सवि काज ॥ २६६ ॥ जेम सुर एह चरित्रनो, नवी धरे ममता भाव । ___ दोन भाव पण नवी करे, चिंतवे निज सुरभाव ॥ ३०० ।। एणीविध पर परजाय में, मैं जे चेष्टा करंत । ___ पण निज शुद्ध सरूप कु, कबहुं नहीं विसरंत ॥ ३०१ ।। शुद्ध हमारो रूप है, शोभित सिद्ध समान । केवल लक्ष्मी को धणी, गुण अनंत निधान ।। ३०२ ॥ एणी परे एह सरूप को, अनुभव कियो बहुवार । अब किणविध मुज भय नहीं, ए जाणो निरधार ॥ ३०३ ॥ अब आगे निज नारी कु, समजावें शुभ रीति । ममता न करो एह की, न करो पुद्गल प्रीत ॥ ३०४ ॥ थिंति पुरण भई एह की, अब रहणे की नांहि । तो क्यु मोह धरो घणो, दुःख करना दिल माही ।। ३०५॥ मेरा तेरा संबंध • जे, एता दिन का होय । . वध घट को न करी सके, एणोविध जाणो सोय ।। ३०६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003812
Book TitleAtma Bodh Sara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKavindrasagar
PublisherKavindrasagar
Publication Year1975
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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