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________________ आत्मशिक्षाभावमा ते थूलिभद्र मुनि वंदिये, मद्रबाहु गुरु शिष्य ॥११४॥ कपिला संगे नवि चल्यो, शेठ सुदर्शन चंग। शूली सिंहासन थई, सुर करे मनने रंग ॥११॥ शिवरमणी ने कारणे, जिण सुख छंड्या देह । तस नामदोय चार लीजिये, भविजन सुणजो तेह ॥११॥ वरस दिवस काउसग्ग कियो, बाहूबल अणगार। मानगजेथी ऊतस्यो, तब लियो केवल सार ॥११॥ गजसुकुमाल शिर सोमले, देखि धस्या अंगार। समता पसाये ते वली, पाम्या भवनो पार ॥११८॥ मेतारज शिर सोनिये, वाधर विंट्यो धरि खेद । निजमन ठामज राखियु, कियो संसार नो छेद ॥११६|| सुक्कोसल सुकुमाल मुनि, बलुयु वाघण अंग। बापनी जामि मा भखी, शिवपुरि वरि मनरंग ॥१२०॥ पूर्वभव प्रिया शियालणी, तिणे भख्यो अवंतीसुकुमाल । नलिनीगुल्म विमानमां, पाम्या सुख तत्काल ।।१२१॥ पंचशत शिष्य खंक्क तणा, घाणी पील्या सोय। शिक्नयरी शिव पामिया, ए समता फल जोय ॥१२२॥ चिलायतिपुत्र नारी शिर, छेदीने कर लीध । उपसम संवर विवेकथी, कृतकर्म दूरे कीध ॥१२॥ दिन प्रति सात हत्या करी, अर्जुनमाली नाम । परिसह देखि क्षमा धरी, पाम्या शिवपुर ठाम ॥१२४।। मुनिपति मुनि काउसग्ग रहे, अग्नि दाधी बेह। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003812
Book TitleAtma Bodh Sara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKavindrasagar
PublisherKavindrasagar
Publication Year1975
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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