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आत्मशिक्षा भावना
भावना वडी संसार मां, जस गुणनो नहीं पार ॥ १५८॥ अरिहंत देव सुसाधु गुरु, केवलि भाषित धर्म ।
इसु समकित आराघतां छूटीजे सवि कर्म ॥१५el
नवपद जापज कीजिये, चउद पूरवनो सार । इस्यो मंत्र गुणिये सदा, जे तारे नर नार ॥ १६०॥ सकल तीरथ नो राजियो, कीजे तेहनी यात्र । जस दरिसणे दुर्गति टले, निर्मल थाये गात्र ॥ १६१ अष्टापद अबुंदगिरि, समेतशिखर गिरनार । पांचे तीरथ वंदिये, मन घरि हर्ष अपार ।।१६२ ॥ ऋषभ शांति जग नेमि जिन, पार्श्व अने वर्द्धमान | पांचे तीरथ प्रणमतां, नित वाधे जिम वान ॥११३॥
उत्तम नर नारी तणां नाम कह्यां ए मांय । नाम निरन्तर लीजिये, जिम सहि आणंद थाय ॥१६४
आतम शिक्षा भावना, गुण मणि रयण भंडार । पाप टले सवि तेहनां, जेह भणे नर नार ॥१६५॥ आतम शिक्षा भावना, जे सुणे हर्ष अपार । नवनिधि तस घर संपजे, पुत्र कलत्र परिवार ॥१६६॥ ए सुणतां सुख ऊपजे, अंग टले सवि रीस । समता रसमां जीवडो, झीले ते निशदीस ॥ १६७॥ इण भव परभव भव भवे, जिन मांगू हुं हेव । मन वच कायाये करी, द्यो तुम चरणनी सेव ॥१६८॥ ए गुण जिहां भावएँ, तिहां राग वेलाउल थाय
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