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बारह भावना
समझे या पराधीनपने भूख प्यास आदि दुखों के वेग को सहन करने से जो कर्म निर्जरे जाते हैं भोगे जाते हैं क्षय हो जाते हैं अर्थात् आत्मा से बिछड़ जाते हैं उसे "अकाम” कहते हैं। ऐसे चिंतन को 'निर्जरा भावना' कहते हैं । इस प्रकार से चिंतन करता हुआ जोव कर्मों के नाश करने में समर्थ होता है।
१० लोक स्वरूप भावना कमर पर दोनों हाथों को रख कर और पैरों को फलाकर खड़े हुए पुरुष की आकृति के समान यह लोक है, जिस में धर्मास्तिकायादि छहों द्रव्य भरे पड़े हैं अधोलोक-नरक के पाथड़ों तथा आंतरों का स्वरूप, मध्यलोक-मनुष्यलोक, ऊर्ध्वलोक-बारह देवलोक, नव वेयक, पांव अनुतर विमान, मोक्ष स्थान इत्यादि विश्वमंडल की अनादि रचना का विचार करना 'लोक भावना' कहलाती है। इस प्रकार के चिंतन से इस जीवके तत्वज्ञान की निर्मलता होती है।
११ बोधिबीज भावना. इस अनादि संसार में नरकादि चारों गतियों में अनन्तकाल से परिभूमण करते हुए इस जीवको सब सांसारिक वस्तु प्रायः अनेक वार प्राप्त हो चुकी है, परंतु मिथ्यादर्शन आदि से नष्टबुद्धि वाले ज्ञानावरण दर्शनावरण मोह और अंतराय के उदय से पराभव को प्राप्त हुए इस जीवको सम्यग्दर्शन आदि विशुद्धि निर्मल बोधि श्री वीतराग देव के धर्म को श्रद्धा-धर्म की प्राप्ति होना दुर्लभ एवं बड़ी मुश्किल है, इस प्रकार के विचार को 'बोधिदुर्लभ' भावना कहते हैं। बोधिदुर्लभ भावना के चिन्तन से जीव बोधिको प्राप्त करके प्रमादी नहीं होता है।
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