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________________ समाधि विचार एह सरूप संसार का, प्रत्यक्ष तुम देखाय । तेण कारण ममता तजि, धर्म करो चित लाय ॥२५२॥ पुन्य संयोगे पामीया, नरभव अति सुखकार । धर्म सामग्रो सवि मली, सफल करो अवतार ॥२५३॥ काल आहेडी जगत में, भमतो दिवम ने रात । तुमकु पण ग्रहशे कदा, ए साचो अवदात ॥ २५४ ॥ एम जाणी संसार को, ममता कीजे दूर। समता भाव अंगीकरो, जेम लहो सुख भरपूर ॥ २५५।। धरम घरम जग सहु करे, पण तस न लहे मरम। शुद्ध घरम समज्या बिना, नवि मिटे तस भरम ॥ २५६ । फटिक मणि निरमल जिसौ, चेतन को जे स्वभाव । धर्म वस्तुगत तेह छे, अवर सवे परभाव ॥ २५७ ॥ राग द्वेष की परिणति, विषय कषाय संयोग। मलीन भया करमे करी, जनम मरण आभोग ।। २५८ ।। मोह करम की गेहलता, मिथ्या दृष्टि अंध। ममतासँ माचे सदा, न लहे निजगुण संग ।। २५६ ।। तिण कारण तुमकु कहुँ, सुणो एक चित लगाय ।। ममता छांडो मूलथी, जेम तुमकुँ सुख थाय ॥ २६० ॥ परम पंच परमेष्टि को, समरण अति सुखदाय । अति आदर थी कीजिये, जेहथी भव दुःख जाय ॥ २६१ ॥ अरिहंत सिद्ध परमातमा, शुद्ध सरूपी जेह । तेहना ध्यान प्रभाव थी, प्रगटे निज गुण रेह ।। २६२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003812
Book TitleAtma Bodh Sara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKavindrasagar
PublisherKavindrasagar
Publication Year1975
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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