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समाधि विचार
एहि परम पद जाणीये, सो परमातम रूप ।
शास्वत पद थिर एह छे, फीरी नहीं भवजल कूप ॥१७५॥ अविचल लक्ष्मी को धणी, एह शरीर असार ।
तिनकी ममता किम करे, ज्ञानवंत निरधार ।। १७६ ॥ सम्यक्ष्टि आतमा, एण विध करी विचार ।
थिरता निज स्वभाव में, पर परिणति परिहार ॥ १७७ ॥ मुजॉ दोनुं पक्ष में, वरते आणंद भाय ।
जो कदी एह शरीर को, रहणो कांइक थाय ॥ १८ ॥ तो निज शुध उपयोग को, आरावन करु सार ।
तिनमें विघन दीसे नहीं, नहीं संक्लेश को चार ॥ १७६ ।। जो कदो थिति पूरण भई, होये शरीर को नाश ।
तो परलोक विषे करु, शुध उपयोग अभ्यास ॥ १८० ॥ मेरे शुद्ध उपयोग में, विघन न दीसे कोय ।
तो मेरे परिणाम में, हलचल कांहीं होय ॥ १८१ ॥ मेरे परिणाम के विषे, शुद्ध सरूप की चाह ।
अति आशक्त पणे रहे, निशदिन एहीज राह ॥ १८२ ॥ ए आशक्ति मिटाववा, ब्रह्मा विष्णु महेश।
आदि कोई समरथ नहीं, तेणे करी भय नहीं लेश ॥१८३ इन्द्र धरणेन्द्र नरेन्द्रका, मुजकुं भय कछु नांहीं ।
या विध शुद्ध सरूपमें, मगन रहुं चित मांही ।। १८४ ॥ समरथ एक महाबली, मोह सुभट जग जाण ।
सवी संसारी जीवकुं, पटके चिहु गति खाण ॥ १८५ ।।
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