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________________ (६७) विशेष रूप से धर्म आराधना करते हुए जीव को उत्कृष्ट भाव उत्पन्न होने से वह त्रिकरण रूप पुरुषार्थ करता है। पहला (१) यथाप्रवृतिकरण इन्द्रियजन्य भोगों से उसे ज्ञानगर्भित वैराग्य उत्पन्न होता है ( भोग में मन्दरुचि या रुचि का अभाव हो जाना) व (२) अपूर्वकरण-मन वच, काया से होने वाले व्यवहारिक धर्म-जप, तपादि से पृथक अन्तर में खोज शोध रूप या चितवृति का व्यायाम-स्वाध्याय, ध्यान रूप अन्तर्साधना करता हैं । (३) अनिवृतिकरण-उपरलिखित सद् अभ्यास से अपने सहज शुद्धात्म स्वरूप एवं स्वभाव का बोध-अनुभूति हो जाना, निश्चय से सम्यग् दर्शन हैं। अर्थात चित्तवृत्ति का अन्तरात्मा में अन्तमुहूर्त के लिये समाधिस्थ हो जाने पर निश्चय से सम्यग्दर्शन हो जाता है। जैन दर्शन में निश्चय नय से धर्म शब्द की व्याख्या वस्तु स्वभावो धम्मो है। आत्म स्वभाव का उसे अनुभव होने लगता है। उसे अपने आत्मा का धर्म-दर्शन उपयोग-वस्तुओं का सामान्य बोध, तथा ज्ञान उपयोग वस्तुओं का विशेष बोव-व्योरेवार जानकारी हो जाती है। इन सब का बोध-अनुभव करने वाले अपने शाश्वत, सहज, शुद्धात्मा की श्रद्धा-सम्यक्त्व हो जाती है। ___ वह जब मनोगुप्ति पूर्वक अपनी चित्तवृत्ति को आत्मबोध रूप अनुभव ज्ञान में समाये रखता है, तब चित्तवृत्ति की वह समाधिस्थ अवस्था ही समता भाव हैं, भाव सामायक है, अन्तरंग चारित्रसंयम भाव हैं, अभेद रत्नत्रय है, अस्तुः, यह सहज, सरल मोक्षमार्ग हैं, ऐसे अपने सहज शुद्धात्मा के ध्यान में रहने वाला ज्ञानी आत्मा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003812
Book TitleAtma Bodh Sara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKavindrasagar
PublisherKavindrasagar
Publication Year1975
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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