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________________ ( १०० ) कुतादि आहार की प्रतीक्षा में खड़ा है, और देने वाले के पास आहार अल्प हैं, तो वे वहाँ से आहार लिये बिना ही चले जाते थे । कितनी सहृदयता थी । अस्तु : मुमुक्षुओं को भी अपने अपने जीवन उपयोगी आहारादि सभी कार्य उपयोग जीवदया का ख्याल रखते हुये करना उचित हैं, भी यदि जीव विराधना हो जाय तो मन वचन याचना करनी चाहिये । पूर्वक जयणा से - पशु पक्षी कृत, मनुष्य कृत, देव कृत उपसर्गों को उनकी अज्ञानता समझ, अथवा अपने पूर्वकृत कर्मों की प्रतिक्रिया जानकर भगवान उन्हें क्षमा तो कर देते ही थे, तथा उन लोगों की अज्ञानता से उनके होने वाले कर्मबंध के भयानक परिणाम के ख्याल से उनका हृदय व्यथित हो करुणा भाव से भर जाता था, सामने वाले में पात्रता होती तो सदुपदेश के द्वारा बोधित कर आत्म कल्याण के सन्मार्ग में लगा देते थे । उन्होंने अनेक मरणान्तक उपसर्ग सहे थे, जिसमें से एक चण्डकौशिक- भयानक विष वाले सर्प का उदाहरण दे रहे हैं :- एक समय सेयविया जिला के एक ग्राम से विहार करते समय गाँव वालों ने उनसे निवेदन किया कि उस दिशा में न जावें क्योंकि उधर जंगल में दृष्टिविषवाला एक भयानक सर्प रहता है, वह उधर से जाने वाले किसी को बिना इसे नहीं छोड़ता । किन्तु महावीर उस दिशामें ही विहार कर गये, तथा संध्या होने से पहले सर्प के बिल के पास पहुंचकर कायोत्सर्ग ध्यान में स्थिर खड़े होकर आत्म ध्यान में तल्लीन हो गये । Jain Educationa International उपयोग रखते हुए काया से क्षमा For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003812
Book TitleAtma Bodh Sara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKavindrasagar
PublisherKavindrasagar
Publication Year1975
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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