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________________ ७४ समाधि विचार जाण्यु रत्नद्वीप एह छे, रल तणो नहीं पार । करु व्यवसाय इहां कणे, मेलवू रतन अपार ॥ १४२ ।। तृण काष्टादिक मेलवी, कूटि करि मनोहार । तिण में ते वासो वसे, करे वणज व्यापार ॥ १४३ ॥ रतन कमावे अति घणां, कूटि में थापे तेह । एम करतां कई दिन गयां, एक दिन चिंता अछेह ॥१४४॥ कूटि पास अग्नि लगी, मन में चिते एम । बुझवुअग्नि उद्यम करी, कुटी रतन रहे जेम ।। १४५ ॥ किण विध अग्नि समी नहीं, तब ते करे विचार । गाफल रहेणां अब नहीं, तुरत हुआ हुशियार ॥ १४६ ॥ ए तरणा की अँपडी, अग्नि तणे संजोग । खीण में ए जलि जायगी, अब कहां इसका भोग ॥ १४७ ॥ रतन संभालं आपणां, एम चिती सवि रत्न । लेई निजपुर आवीओ, करतो बहु विध जत्न ॥ १४८ ॥ रतन विक्रीय तेणे पुरे, लक्ष्मी लही अपार । मंदिर महेल बनाविया, बाग बगीचा सार || १४६ ।। सुख विलसे सब जातका, किसी उणप नहीं तास । देवलोक परे मानतो, सदा प्रसन्न सुखवास ॥ १५० ।। भेद विज्ञानी पुरुष जो, एह शरीर के काज । दूषण कोइ सेवे नहीं, अतिचार भी त्याज ॥ १५१ ॥ आत्म गुण रक्षण भणी, दृढता धरे अपार । देहादिक मुर्छा तजी, सेवे शुद्ध व्यवहार ॥ १५२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003812
Book TitleAtma Bodh Sara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKavindrasagar
PublisherKavindrasagar
Publication Year1975
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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