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________________ २२ आत्म निंदा निर्बल है और कर्म सबल हैं, अरे चेतन ! कर्म ने तो चौदा पूर्व के धारक को भी उठाकर गिराया, ग्यारहवें गुणस्थानक के जीव भुवनभानु केवलीजी, व कमलप्रभ आचार्यजी महाविदेह के मनुष्य जैसों को भी डिगा दिया तो तू किस बाग की मूली हे ? । आठ क की एक सौ अट्ठावन प्रकृति होती हैं, हे प्रभु ! कैसे जीती जा सके ? मोहिनी कर्म जिसके पीछे लगा उसे कैसे जीता जाय ? हे चेतन ! चारित्र फोज में निवास कर सद्बोध सेनापति की आज्ञा में रह, हमेशा आगम से परिचय रख, संतोषरूपी गुण ग्रहण करके तृष्णा रूपी दाह को निकाल बाहिर कर ! जिससे तेरी आत्मा का कल्याण हो। धन्य है उन साधु मुनिराजों को जो पाँच समिति से समेता, तीन गुप्ति से गुप्ता, छ काया के पालने वाले सात बड़े भय हैं, उनको टालने वाले, आठ मद को जीतने वाले, नव ब्रह्मचर्य की वाड की रक्षा करने वाले, दस प्रकार के यति धर्म को उज्ज्वल करने वाले, ग्यारह अग के पढ़ने वाले, बारह उपांगों को जानने वाले, सदा उदासीन भाववाले, ऐसे चारित्र पालने वाले को धन्य है कि जो प्रभु की आज्ञा में रहकर धर्म का पालन करते हैं। अरे चेतन ! तुझे भी कभी उदय होगा ? अरे ! तुझे होवे कहां से, क्योंकि तू तो संसार में बहुत ही फंसा हुआ है। धन्य है उनको कि जो देशव्रती श्रावक हैं, वे प्रतिक्रमण करते हैं, प्रभु की आज्ञा में रहकर धर्म का पालन करते हैं, सबेरे सामायिक करते हैं, तीर्थकरों के दर्शन करते हैं, प्रभु की बारह प्रकार की वाणी को सुनते हैं। देव की ( जिन देव की) पूजा, जिन देव की वंदना, दान, तपश्चर्या, शील, पर्व के दिन पोसा, सन्ध्या समय देवसी प्रतिक्रमण करते हैं, उस प्रकार हे चेतन ! तुझे धर्म कब उदय होगा ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003812
Book TitleAtma Bodh Sara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKavindrasagar
PublisherKavindrasagar
Publication Year1975
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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