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( १०४ ) जान एवं विचार शक्ति को शारीरिक सुख सुविधा को प्रास करने में ही अपने जीवन को व्यर्थ में न खो दें उदयानुसार शरीर के भरण पोषण केसाथ साथ ही अपने आत्म कल्याण का मार्ग अवश्य खोज निकाले जिसके फलस्वरुप जन्म-मरण के दुःख से मुक्त हो सकें। __सभी तीर्थकर एवं भगवान महावीर के जीव ने भी अपने गत तीसरे भव में ही इस तथ्य को उपलब्ध किया तथा उस क्षेत्र के तीर्थकर के आदेशानुसार अपने मिथ्यादर्शन की भूल को सम्यग्दर्शन से सुधारा तब उनका मिथ्या ज्ञान एवं चारित्र भी शुद्ध होकर सम्यग् ज्ञान चारित्र रूप से प्रतिफलित हुए अर्थात् उनके अनादि काल के कर्म रोग का मूल कारण हिंसक प्रवृति उसको चरितार्थ करने वाले असत्य, चोरी मैथुन, परिग्रह संचय करने रूप क्रियात्मक एवं रागभाव-लोभ लालसा, माया प्रपंच द्वेषभाव-क्रोध मानादि रूप भाव-परिणामात्मक अनादि रोग की दवा उन्होंने उस क्षेत्र के तीर्थकर के आज्ञानुसार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह, क्षमा, विनय, सरलता, संतोष तप ब्रतादि त्रिकरण त्रियोग ने आराधन किया जिससे उनको सम्यग्दर्शन ज्ञान जो विचारात्मक (थियोरिटिकल) था, वह चारित्र तपरूप से क्रियात्मक (प्रैक्टिकल ) होने पर उन्हें अपूर्व शान्ति एवं आत्मानंद का अनुभव हुआ, जिससे उनका चित्त अति प्रफुल्लित हो सबि जीव करू शासन रसी, ऐसी भाव दया मन उल्लसी" (स्नात्रपूजा) ऐसी तीब्रभावना से ओतप्रोत हो जाने से तीर्थकर नामादि कर्म का बंध हुआ। और वे इस काल में इस भारत क्षेत्र के
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