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________________ समावि विचार श्री अरिहंत परमातमा, वली श्री सिद्ध भगवंत । ज्ञानवंत मुनिराजनी, वली सुर' समकितवंत ॥ ३५१ ॥ इत्यादिक महापुरुष की, साख करो सुविशाल । वली निज आतम साखसु, दुरित सवे अशराल ॥ ३५२ ।। मिथ्यादुष्कृत भली परें, दोजे त्रिकरण शुद्ध । एणी विध पवित्र थई पछे, कोजे निर्मल बुद्ध ॥ ३५३ ॥ अवश्य मरण निज मन विषे, भासन हुवे जाम । - सर्व परिग्रह त्याग के, आहार चार तजे ताम ॥ ३५४ ।। जो कदि निर्णय नवी हुवे, मरण तणो मन माही। तो मरजादा कीजिये, इतर काल की तांही ॥ ३५५ ।। सर्व आरंभ परिग्रह सहु, तिनको कीजै त्याग । चारे आहार वली पंचखिये, इणविध करी महाभाग ।।३५६॥ हवे ते समकित दृष्टिवंत, थिर करी मन वच काय । खाट थी नीचे उतरी, सावधान अति थाय ॥ ३५७ ॥ सिंह परे निर्भय थइ, करे निज आतम काज । मोक्ष लक्ष्मी वरवा भणी, लेवा शिवपुर राज ॥ ३५८ ।। जिम महा सुभट संग्राम मां, वैरी जीतण काज । रणभूमि में संचरे, करता अतीह दीग्राज ॥ ३५६ ।। इणीविध समकितवंत जे, करी थिरता परिणाम । आकुलता अंशे नहीं, धीरज तणु ते धाम ॥ ३६० ।। शुद्ध उपयोग मां वरततो, आतमगुण अनुराग । परमातम के ध्यान में, लीन और सब त्याग ॥ ३६१ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003812
Book TitleAtma Bodh Sara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKavindrasagar
PublisherKavindrasagar
Publication Year1975
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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