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आत्म निन्दा
में, कभी कुदेव में, कभी कुधर्म में, कभी ज्ञान-विराधना में, कभी दर्शन-विराधना में, कभी चारित्र-विराधना में, कभी मनोदंड में, कभी वचन-दंड में, कभी काय-दंड में, कभी हास्य में, कभी रति में, कभी अरति में, कभी भय में, कभी शोक में, कभी दुगंछा में, कभी कृष्ण लेश्या में, कभी नील लेश्या में, कभीकापोत लेश्या में,कभी ऋद्धिगारव में, कभी रस-गारव में, कभी साता-गारव में, कभी माया-शल्य में, और कभी नियाणा-शल्य में, कभी मिथ्यादर्शन शल्य में लीन रहता है। कभी तेरह काठिये और कभी अठारह पापस्थानक तुझे चारों ओर से घेरे रहते हैं। हे आत्मा! इस प्रकार से तूं मत बन। रे अज्ञानान्ध ! अघोर पापी! हे दुष्ट जीव ! प्रायः तुझे अनंतानुबंधी क्रोध, अनंतानुबंधी मान, अनंतानुबंधी माया और लोभ की चौकडी खपी नहीं, न तेरे गुणठाणा ही पलटा, और न धैर्यता ही प्राप्त हुई न तृष्णा, दाह मिटी, और न आकुल व्याकुलता ही मिटी। जिस प्रकार समुद्र में लहरें उछलती हैं, उसी प्रकार तुझ में भी तृष्णा की लहरें उछल रहीं हैं। तू जो क्रिया करता है सो शून्य मन से करता है। यदि समझ के साथ शांत मन से करेगा तब ही तुझे फल देने वाली होगी, शून्य मन से की हुई क्रिया इस प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार राख पर लीपा हुआ लीपण। हे चेतन ! जो सोगन नहीं ले याने नियम रहित रहे वह पापी है और जो सोगन लेकर जान बूझ के तोड़ डाले वह महापापी है। क्योंकि तूने अनंतकाय, अभक्ष, शीलवत, चरस, गांजा, अफीम, भांग, तमाखू , आदि के सोगन लेकर तोड़ डाले;
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